पद 241 से 250 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 3
पद संख्या 245 तथा 246
(245)
मेहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो।
याके लिये सुनहु करूनामय, मैं जग जनमि-जनमि दुख रोयो।।
सीतल, मधुर, पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जनु खोयो।
बहु भाँतिन स्त्रम करत मोहबस,बृथहि मंदमति बारि बिलोयो।।
करम-कीच जिय जानि, सानिचित, चाहत कुटिल मलहि मल धोयो।
तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि-फिरि बिकल अकास निचोयो।।
तुलसिदास प्रभु! कृपा करहु अब, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो।
डासत ही बीति गयी निसा सब, कहहूँ न नाथ! नींद भरि सोयो।।
(246)
लोक -बेद हूँ बिदित बात सुनि-समुझि ,
मोह -मोहित बिकल मति थिति न लहति।
छोटो -बड़ो, खोटो -खरे, मोटेऊ दूबरे,
राम! रावरे निबाहे सबहीकी निबहति।1।
होती जो आपने बस, रहती एक ही रस,
दूनी न हरष-सोक -साँसति सहति।
चहतो जो जोई जोई , लहतो सो सोई सोई,
केहू भाँति काहू की न लालसा रहति।2।
करम, काल, सुभाउ गुन-दोष जीव जग मायाते,
सो सभै भौंह चकित चहति।
ईसनि-दिगीसनि, जोगीसनि, मुनीसनि हू,
छोड़िये छोड़ाये तें,गहाये ते गहति।3।
स्तरंजको राज, काठको सबै समाज ,
महाराज बाजी रची, प्रथम न हति।
तुलसी प्रभुके हाथ हारिबो -जीतिबो नाथ!
बहु बेष, बहु मुख सारदा कहति।4।