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प्रिय प्रवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षोडश सर्ग / पृष्ठ - १

वंशस्थ छन्द

विमुग्ध-कारी मधु मंजु मास था।
वसुन्धरा थी कमनीयता-मयी।
विचित्रता-साथ विराजिता रही।
वसंत वासंतिकता वनान्त में॥1॥

नवीन भूता वन की विभूति में।
विनोदिता-वेलि विहंग-वृन्द में।
अनूपता व्यापित थी वसंत की।
निकुंज में कूजित-कुंज-पुंज में॥2॥

प्रफुल्लिता कोमल-पल्लवान्विता।
मनोज्ञता-मूर्ति नितान्त-रंजिता।
वनस्थली थी मकरंद-मोदिता।
अकीलिता कोकिल-काकली-मयी॥3॥

निसर्ग ने, सौरभ ने, पराग ने।
प्रदान की थी अति कान्त-भाव से।
वसुन्धरा को, पिक को, मिलिन्द को।
मनोज्ञता, मादकता, मदांधता॥4॥

वसंत की भाव-भरी विभूति सी।
मनोज की मंजुल-पीठिका-समा।
लसी कहीं थी सरसा सरोजिनी।
कुमोदिनी-मानस-मोदिनी कहीं॥5॥

नवांकुरों में कलिका-कलाप में।
नितान्त न्यारे फल पत्र-पुंज में।
निसर्ग-द्वारा सु- प्रसूत-पुष्प में।
प्रभूत पुंजी-कृत थी प्रफुल्लता॥6॥

विमुग्धता की वर-रंग-भूमि सी।
प्रलुब्धता केलि वसुंधारोपमा।
मनोहरा थीं तरु-वृन्द-डालियाँ।
नई कली मंजुल-मंजरीमयी॥7॥

अन्यूनता दिव्य फलादि की, दिखा।
महत्तव औ गौरव, सत्य-त्याग का।
विचित्रता से करती प्रकाश थी।
स-पत्रता पादप पत्र-हीन की॥8॥

वसंत- माधुर्य- विकाश- वर्ध्दिनी।
क्रिया-मयी, मार-महोत्सवांकिता।
सु-कोंपलें थीं तरु-अंक में लसी।
स-अंगरागा अनुराग-रंजिता॥9॥

नये-नये पल्लववान पेड़ में।
प्रसून में आगत थी अपूर्वता।
वसंत में थी अधिकांश शोभिता।
विकाशिता-वेलि प्रफुल्लिता-लता॥10॥

अनार में औ कचनार में बसी।
ललामता थी अति ही लुभावनी।
बड़े लसे लोहित-रंग-पुष्प से।
पलाश की थी अपलाशता ढकी॥11॥

स-सौरभा लोचन की प्रसादिका।
वसंत- वासंतिका- विभूषिता।
विनोदिता हो बहु थी विनोदिनी।
प्रिया-समा मंजु-प्रियाल-मंजरी॥12॥

दिशा प्रसन्ना महि पुष्प-संकुला।
नवीनता-पूरित पादपावली।
वसंत में थी लतिका सु-यौवना।
अलापिका पंचम-तान कोकिला॥13॥

अपूर्व-स्वर्गीय-सुगंध में सना।
सुधा बहाता धमनी-समूह में।
समीर आता मलयाचलांक से।
किसे बनाता न विनोद-मग्न था॥14॥

प्रसादिनी-पुष्प सुगंध-वर्ध्दिनी।
विकाशिनी वेलि लता विनोदिनी।
अलौकिकी थी मलयानिली क्रिया।
विमोहिनी पादप पंक्ति-मोदिनी॥15॥

वसंत शोभा प्रतिकूल थी बड़ी।
वियोग-मग्ना ब्रज-भूमि के लिए।
बना रही थी उसको व्यथामयी।
विकाश पाती वन-पादपावली॥16॥

दृगों उरों को दहती अतीव थीं।
शिखाग्नि-तुल्या तरु-पुंज-कोंपलें।
अनार-शाखा कचनार-डाल थी।
अपार अंगारक पुंज-पूरिता॥17॥

नितान्त ही थी प्रतिकूलता-मयी।
प्रियाल की प्रीति-निकेत-मंजरी।
बना अतीवाकुल म्लान चित्त को।
विदारता था तरु कोबिदार का॥18॥

भयंकरी व्याकुलता-विकासिका।
सशंकता-मुर्ति प्रमोद-नाशिनी।
अतीव थी रक्तमयी अशोभना।
पलाश की पंक्ति पलाशिनी समा॥19॥

इतस्तत: भ्रान्त-समान घूमती।
प्रतीत होती अवली मिलिन्द की।
विदूषिता हो कर थी कलंकिता।
अलंकृता कोकिल कान्त कंठता॥20॥