शंकर -स्तवन-7
( छंद 161, 162)
(161)
चाहै न अनंग-अरि एकौ अंग मागनेको,
देबोई पै जानिये, सुभावसिद्ध बानि सो।
बारि बुंद चारि त्रिपुरारि पर डारिये तौ,
देत फल चारि , लेत सेवा साँची मानि सो।।
तुलसी भरोसो न भवेस भोरानाथ को तौ,
कोटिक कलेस करौ, मरौ छार छानि सो।
दारिद दमन दुख-दोष दाह दावानल ,
दुनी न दयाल दूजो दानि सूलपानि-सो।।
(162)
काहेको अनेक देव सेवत जागै मसान,
खोवत अपान,सठ! होत हठि प्रेत रे।।
काहेको उपाय कोटि करत , मरत धाय,
जाचक नरेस देस-देसके, अचेत रे।।
तुलसी प्रतीति बिनु त्यागै तैं प्रयाग तनु,
धनहीके हेत दान देत कुरूखेत रे।।
पात द्वै धतूरेके दै, भोरें कै, भवेससों,
सुरेसहूकी संपदा सुभायसों न लेत रे।।