शंकर -स्तवन-8
 ( छंद 163, 164)
(163)
स्यंदन, गयंद,बाजिराज,भले भले भट,
धन-धाम -निकर करनिहूँ न पूजै क्वै। 
बनिता बिनीत, पूत पावन सोहावन , औ , 
बिनय, बिबेक,बिद्या सुभग सरीर ज्वै।ं 
इहाँ  ऐसो सुख , परलोक सिवलोक ओक, 
जाको फल तुलसी सो सुनौ सावधान ह्वै।
 जानंे , बिनु  जानें, कै रिसानें , केलि कबहुँक,
 सिवहि चढ़ाइ ह्वैहैं  बेलके पतौवा द्वै।।
(164) 
रति-सी रवनि, सिंधुमेखला अवनि पति,
 औनिप अनेक ठाढ़े हाथ जोरि  हा िर कै। 
संपदा -समाज देखि लाज सुरराजहूकें, 
सुख सब बिधि दीन्हें हैं, सवाँरि कै।। 
इहाँ ऐसो सुख, सुरलोक सुरनाथपद, 
जाको फल तुलसी सो कहैगो बिचारि कै। 
आकके पतौआ चारि, फूल कै धतूरेके द्वै, 
दीन्हें ह्वैहैं बारक पुरारिपर डारिकै।।