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शरशय्या / दोसर सर्ग / भाग 14 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

आनि सुयोधन देल झट
गद्दी सुखद विशेष।
कहल, “उचित नहि क्षत्रियक
जीवन शय्याशेष।।82।।

बिद्ध बाणसँ कए दिअ
हमरो पृष्ठ-प्रदेश।
लाउ धनंजय! सम्हरिके
पालन करु आदेश“।।83।।

बाणक शय्या धारिके
पड़ला पूज्य प्रधान।
पुनि जग नहि पाओत प्रसर
हएत एहन के आन?।।84।।

कण्ठ पिपासित जानिकें
शीतल मिसरी पानि।
अनलन्हि कौरव रतनमय
स्वर्ण-पात्रमे छानि।।85।।

मोन पड़ल माइक ततए
ममता मंजुल कीड़।
कहल, “एतए भेटत कोना
गंगा नीर अथोड़?“।।86।।

शर गाण्डीवक तीक्ष्ण तत
पहुँचल झट् पाताल।
स्रोत गेल मुख बीचमे
पीवथि उत्सुक बाल।।87।।

भोगवती माताक मधु-
पूरल दूध पवित्र।
पीवि कएल सज्ञान भए
उज्ज्वल अपन चरित्र।।88।।