भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काशी में महामारी / तुलसीदास/ पृष्ठ 5
Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:15, 10 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास }} {{KKCatKavita}} Category:लम्बी रचना {{KKPageNavigation |पीछे=क…)
काशी में महामारी-5
( छंद 177, 178)
(177)
एक तौ कराल कलिकाल सुल-मूल , तामें ,
कोढ़मेंकी खाजु-सी सनीचरी है मीनकी।
बेद-धर्म दूरि गए, भूमि चोर भूप भये,
साधु सीद्यमान जानि रीति पाप पीनकी।
दूबरेको दूसरो न द्वार , राम दयाधाम!
रावरीऐ गति बल-बिभव बिहीन की।
लागैगी पै लाज वा बिराजमान बिरूदहि,
महाराज! आजु जौं न देत दादि दीनकी।।
विविध-1
(178)
रामनाम मातु पितु स्वामि समरथ, हितु,
आस रामनामकी, भरोसो रामनामको।
प्रेम रामनामहीसों, नेम रामनामहीको,
जानौं नाम मरम पद दाहिनो न बामको।
स्वारथ सकल परमारथको रामनाम,
रामनाम हीन तुलसी न काहू कामको।
राम की सपथ , सरबस मेंरे रामनाम,
कामधेनु-कामतरू मोसे छीन छामको।।