(7)
मेरो सब पुरुषारथ थाको |
बिपति बँटावन बन्धु-बाहु बिनु करौं भरोसो काको ||
सुनु, सुग्रीव! साँचेहू मोपर फेर्यो बदन बिधाता |
ऐसे समय समर-सङ्कट हौं तज्यो लषन-सो भ्राता ||
गिरि, कानन जैहैं साखा-मृग, हौं पुनि अनुज-सँघाती |
ह्वैहै कहा बिभीषनकी गति रही सोच भरि छाती ||
तुलसी सुनि प्रभु-बचन भालु-कपि सकल बिकल हिय हारे |
जामवन्त हनुमन्त बोलि तब, औसर जानि प्रचारे ||