भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वो सरफिरी हवा थी सँभलना पड़ा / 'अमीर' क़ज़लबाश
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:33, 1 अप्रैल 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='अमीर' क़ज़लबाश }} {{KKCatGhazal}} <poem> वो सरफि...' के साथ नया पन्ना बनाया)
वो सरफिरी हवा थी सँभलना पड़ा मुझे
मैं आख़िरी चराग़ था जलना पड़ा मुझे
महसूस कर रहा था उसे अपने आस पास
अपना ख़याल ख़ुद ही बदलना पड़ा मुझे
सूरज ने छुपते छुपते उजागर किया तो था
लेकिन तमाम रात पिघलना पड़ा मुझे
मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू थी मेरी ख़ामुशी कहीं
जो ज़हर पी चुका था उगलना पड़ा मुझे
कुछ दूर तक तो जैसे कोई मेरे साथ था
फिर अपने साथ आप ही चलना पड़ा मुझे