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इक रोज़ बिछड़ जायेंगे दिन सूरजों वाले / 'महताब' हैदर नक़वी

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इक रोज़ बिछड़ जायेंगे दिन सूरजों वाले
फिर दिन न कभी आयेंगे दिन ख़ुशफ़हमियों वाले

इन प्यासी ज़मीनों की तमन्नाएँ सिवा हैं
तुम कौन से इस शहर में हो वहशतों वाले

तनहाई मिरी पूछती है मुझसे कि ऐ दोस्त
किस सम्त गये क़ाफ़िले परछाइयों वाले

ये आँख मेरी हो गयी मानूस जहाँ से
या खो गये मंज़र सभी वो हैरतों वाले

मैं अपनी तमन्नाओं के नरग़े से घिरा हूँ
दे रास्ता मुझको भी कोई रास्तों वाले