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एक फूल से बातचीत / प्रताप सहगल

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आज मैंने
एक फूल से बातचीत की
सुर्ख फूल
खड़ा अकेला
और खामोश
सिर्फ मेरी आंखों में झांकता रहा
फूल की इस हरकत में
एक अजीब तरह का दम्भ था
मुझे लगा
वह मेरी आंखों के रास्ते
अन्दर तक उतर रहा है
फूल ने मेरे अन्दर का नंगापन
देख लिया है
फिर भी खमोश है फूल
और मैं अपने नंगेपन का
कोई तर्क खोजने लगा हूं
चाहता हूं फूल को तोड़-मसलकर फेंक दूं
फूल ने मेरी मंशा को भांप लिया है
उसने अपनी खामोशी तोड़ दी है-
'मैं तो वसन्त की एक ध्वजा हूं
मुझसे क्या?
सानमा करना है तो
वसन्त से करो न।'