भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीवन / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:30, 14 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप सहगल |अनुवादक= |संग्रह=अंध...' के साथ नया पन्ना बनाया)
काश! जीवन को
नदी के जल की तरह से
बांधना भी संभव होता।
काश! जीवन को
छतरियों में कैद करना
मुमकिन होता।
काश! जीवन को
नाव की तरह
एक किनारे से
दूसरे किनारे तक
खेहा जा सकता।
जीवन तो
पानी पर फैली रेत-सा
अनन्त विस्तार है
छतरियों से बाहर निकलती हुई
अव्यवस्था है जीवन।
जीवन
चेहरों के पीछे छिपी हलचलों का
रहस्यमय आगार है
जीवन बनारस की सुबह है
बम्बई की शाम है
दिल्ली की दोपहरी है जीवन
कलकत्ता की रात का अल्पविराम है
छतरियों में कैद नहीं होता जीवन
न पंडों के बहीखातों में
जीवन तो झूमता है
गलियों
बाज़ारों
अहातों में।