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जंगली आदमी कब्र / प्रताप सहगल

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जंगल का इतिहास
बोलता है जब
खोलता है भेद
आदमी के
चीखता है जंगल-
जब भी सिमटता है आदमी
बिखेरता है दहशत
दहशत के बेतरतीब हाथ-पांव
फैल जाते हैं
जंगल के बीचों बीच
निचोड़ लेती है समय का सत
दहशत।
इस दहशत को कोई भी नाम दो
एक सूखा हुआ पत्ता
एक टूटा हुआ दरख्त
या गर्म हवा का एक झोंका
नामों की फेहरिसत में
जुड़ता है एक और नाम
कब्र
सोचता हूं
कहीं आदमी अपनी कब्र
खुद ही तामीर तो नहीं कर रहा?