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सुनि मधु मुनि-मन-मोहनि मुरली / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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सुनि मधु मुनि-मन-मोहनि मुरली, करि मधु रूप-सुधा-रस-पान।
बिसरे अग-जग, तन-मन सगरे, राधा भई तुरत बेभान॥
स्रवन-नयन-पथ करि प्रबेस उर, छेडि रहे मधु मुरली-तान।
छाय रहे, रस लगे उँड़ेलन दिय मधुर रसराज सुजान॥
जोगी, परम सिद्ध, तापस, मुनि, ग्यानी, जीवन्मुक्त महान।
सुनि मुरली, अवलोकि मधुर छबि, रखि नहिं सकत चिा-अवधान॥
चकित-थकित, उर द्रवित, स्रवत दृग, बरबस तजि बिराग अरु ग्यान।
डूबत मधुर प्रेम-रस-निधि अति, भजत अहैतुक मन भगवान॥