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लता-वल्लरी रही प्रफुल्लित / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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लता-वल्लरी रही प्रफ्फुल्लित, श्याम-तमाल सुशोभित कुज।
सुमन-समूह सौरभित सुन्दर, मँडरा रहा मुग्ध अलि-पुज॥
मा मयूरी नृत्य कर रहीं, शुक-सारिका निरत कल गान।
कालिन्दी कल्लोल कर रहीं मा बही जा रही उजान॥
मधुर मुरलि मुखरित नभ-मण्डल सकल पूर्ण रसभरित निनाद।
दिग्‌-दिगन्त आनन्द मा अति, हटे मिटे भय-शोक-विषाद॥
प्रेम-रस-भरी भानु-नन्दिनी सब कुछ छोड़ चली अभिसार।
कौन कहाँ मैं चली जा रही क्यों? सब भूल गयीं संसार॥
पहुँची प्रियतम-पद-पद्मोंमें, देख रूप हो गयीं विभोर।
अधर मधुर मृदु हास्य सुशोभित, नवल श्याम-घन मन-धन-चोर॥
अगणित शरद-‌इन्दु-मद-हारी, वदन-‌इन्दु वर विमल विभास।
दृग विशाल मदभरे मनोहर, प्रेमीजन-मन-नयन विशाल॥
सर्वाकर्षक सर्वाह्लादक, महारसायन रस-भरपूर।
सौन्दर्यामृतसिन्धु तरंगित, ललना चि-पवन-शूर॥
अङङ्ग-सुगन्ध दिव्य देती नित प्राणेन्द्रियको सुख स्वच्छन्द।
भाल विशाल, केस घुँघराले, मुकुट मयूर-पिच्छ सुख-कन्द॥
मुग्धा राधा बोल न पायीं, वाणी सहज हु‌ई अवरुद्ध।
चला परस्पर सुखद सरसतम भाव-तरंगोंका शुचि युद्ध॥
हृदय द्रवित हो, उमड़ा दिव्यामृत रस-सागर अमित अथाह।
धैर्य-कूल कर भङङ्ग बह चला राधा दृगसे अश्रु-प्रवाह॥
हु‌ए क्षणोंमें ही प्रक्षालित चरण-युगल अतिशय अभिराम।
जिनकी नख-चन्द्र-द्युति ही है-परब्रह्मा सच्चित्‌-सुखधाम॥
सहसा देख प्रियतमाको, उनकी इस लीलाको सुखसार।
विह्वल हु‌ए श्याम, दृग आँसू बहे, उठा लीं भुजा पसार॥
कहने लगे-’तुहारा ही प्रियतमे ! कर रहा था मैं ध्यान।
डूब रहा था मैं अगाध सौन्दर्य-सिंधुमें शुचि निर्मान॥
इतनेमें ही मिला तुहारा मुझको अकस्मात्‌ संस्पर्श।
खुले नेत्र, सहसा दीखी तुम, भरा तुरंत हृदय अति हर्ष’॥
वचन-सुधा रमणीय दिव्य कर पान राधिका भूली भान।
दशा ’प्रेमवैचिय’ उदय हो उठी, मिट गया बाह्य-जान॥
प्रियतमने संनिधिमें लेकर र?खा शुचि मस्तक निज अङङ्क।
अपलक लगे देखने वल्लभ सुधा-मधुर-श्री-सुमुख-मयङङ्क॥
देख पा रही नहीं राधिका किंतु श्यामको अपने पास।
दर्शन-हेतु भाग चलनेको राधा करने लगीं प्रयास॥
किंतु नहीं उठ सकीं, कर उठीं हो व्याकुल अति करुण पुकार।
’हा प्राणेश ! प्राणवल्लभ हे ! हा हृदयेश्वर ! प्राणाधार !॥
कहाँ गये तुम मुझे छोडक़र एकाकिनी सहज असहाय ?।
कैसे कहाँ मिलूँ अब तो ये प्राण नहीं रह सकते हाय !॥
हाँ, हाँ, मैं अब समझी, तुमको मिलता इससे सुख-‌आराम।
तो मैं मरती रहूँ, न मिलना मुझसे मेरे प्राणाराम !॥
तुहें चाहती मरकर भी मैं सुखी देखना नित्य अनन्त।
पूरी करो साध मेरी, यह मेरे सर्वेश्वर ! श्रीमन्त !’॥
यों कहकर हो गयीं राधिका मूर्छित बाह्य-चेतनाहीन।
छाया अति विषाद मुख-विधुपर, दशा हो रही थी अति दीन॥
धोये नेत्र सुशीतल जलसे, प्रियने छिडक़े मुख जलबिन्दु।
व्याकुल हु‌ए देख प्यारीका सुखमय मलिन सुमुख-शरदिन्दु॥
बोले-’प्रिये ! उठो तुम सत्वर, करो चेत, मत रहो उदास।
प्राणाधार तुहीं हो मेरी, अतः निरन्तर रहता पास॥
गया नहीं मैं कहीं प्रियतमे ! जा न सकूँगा तुमको त्याग।
नहीं तुहारे सिवा कहीं भी है मेरा किंचित्‌-सा राग॥
तुहें सुखी करनेको ही बस मैं लेता भूपर अवतार।
प्रेम-रसास्वादन मैं करता दिव्य तुहारा अकथ अपार’॥
कहते-कहते श्याम हृदय-सागरमें उठीं अनेक तरंग।
बहने लगी अश्रु-सरिता, सब शिथिल हो गये चिन्मय अङङ्ग॥
जगीं राधिका, मिटा ’प्रेमवैचिय’, हु‌आ सुस्मृतिका लाभ।
देखा अश्रु बहाते प्रियतम, लान नेत्र जो नित अमिताभ॥
आतुर र्‌आा रो पड़ी, बोलीं-’प्राणेश्वर ! मैं कैसी नीच !।
मेरे कारण नित प्रसन्न-मुख, आज विषण्ण जगतके बीच॥
कैसे दुःख मिटान्नँ प्यारे ! कैसे सुख पहुँचान्नँ आज !
कैसे मुखपर मुक्त हास्य मैं देखूँ, हे मेरे सिरताज !
सुनकर बोले मेरे प्रियतम, ’प्रिये ! एक साधन वि?यात।
मुझे हँसाने, सुखी बनानेका अमोघ, यह निश्चित बात॥
सुखी बनो तुम, रहो प्रड्डुल्लित, रोम-रोम भर दिव्यानन्द।
मृदु मन्दस्मित रहे खेलता अधरोष्ठस्नेंपर नित्य अमन्द॥
प्रिये ! तुहारा सुख मेरा सुख, प्यार तुहारा मेरा प्यार।
सुखी करो, हो सुखी स्वयं तुम-यही एक बस साधन-सार’॥

(सोरठा)
प्रिय-मुखकी सुन बात, राधा अति हर्षित हुर्‌ईं।
पुलक हो उठे गात, मिले परस्पर हर्षयुत॥