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बज्र सम मेरौ हियौ कठोर / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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बज्र सम मेरौ हियौ कठोर।
स्याम-बिरह बिदरत नहिं, छिन महँ करत अरोर-मरोर॥
जल कौ प्रेम मीन जानत जग, बिछुरत ही मरि जात।
रच्छा हित इत-उत नहिं ताकत, नैन मूँदि रहि जात॥
मेरौ हियौ प्रेम तैं छूँछो, ता तैं प्रान न निकसत।
जद्यपि बिरह-यथा अति हिय में अधिक-अधिक ही विकसत॥
याकौ एक और ही कारन मेरे मन में आयौ।
तातें दुस्सह दुःख सहन करि, अपनौ मरन भुलायौ॥
स्याम कहि गए-’हौं आवौंगो ड्डेरि तुहारे पास’।
तब तैं स्याम दरस की हिय में लगी पियारी आस॥
मधुर स्याम-दरसन तैं मेरौ मन अनुपम सुख पावै।
मोकूँ सुखी देखि प्रियतम-हिय सुख-समुद्र लहरावै॥
या सुख तैं बंचित न रहैं वे प्रियवर स्याम सुजान।
या कारन नहिं निकसत तन तैं परम कलंकी प्रान॥