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परत मन छिन नैकहु नहिं चैन / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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परत मन छिन नैकहु नहिं चैन।
याकुल यथित चिा दिन बीतत, परत नींद नहिं रैन॥
घर-धन-परिजन हुते सबहि अति प्यारे, हुतौ ममत्व।
अब न सुहात कतहुँ, को‌उ कबहूँ, सब महँ भयौ समत्व॥
मन न करत कछु तिन के आवन-जावन की परवाह।
एकमात्र प्रियतम-दरसन की बढ़त नित न‌ई चाह॥
सुरति न करत अन्य की मन, तजि सगरी व्याधि-‌उपाधि।
’प्रिय-मिलनेच्छा’ रूप भयौ बस, लागी सहज समाधि॥
मिटी असांति-विथा-याकुलता, पायौ सब बिधि चैन।
इच्छा तीब्र अनन्य मिलन की भ‌ई सकल सुख-‌ऐन॥