Last modified on 17 जनवरी 2014, at 01:56

मत समझना तुम कभी यह, / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:56, 17 जनवरी 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मत समझना तुम कभी यह, मैं तुहें हूँ छोड़ आया।
नित्य आत्मा मिल रही है, कहीं भी यह रहे काया॥
नित्य अनुभव हो रहा है, हृदयमें है रूप छाया।
एक पलको भी कभी हटता न वह बलसे हटाया॥
हृदयके प्रत्येक स्तरमें, देहके हर रोममें नित।
स्पर्श मधुमय हो रहा है दे रहा है, सुख अपरिमित॥
इह-परत्र सुमिलन ही, बस, हो चुका नित सत्य निश्चित।
विलग होना है कभी सभव नहीं, अब यही सुविहित॥
नित्य नव अनुराग, नित नव रस, विमल आनन्द नित नव।
हो रहे सब एक मिलकर मुदित आयन्तरिक अवयव॥
प्रेम-मिलन वियोग-विरहित, नहीं तनिक विछोह त्रुटि-लव।
सूक्ष्म अणु-‌अणुमें सदा ही, सर्वथा आनन्द-‌अनुभव॥
पाचभौतिक देह नश्वरका मिलन-‌अमिलन सदृश है।
क्योंकि दुष्परिणाम उसका एकमात्र वियोग-विष है॥
आत्म-मिलन अबाध अविनाशी मधुरतम परम रस है।
सदा लहराता अमृत-सागर वहाँ शुचि एकरस है॥