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कृष्ण-सुखैक-वासना केवल / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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कृष्ण-सुखैक-वासना केवल कृष्ण-सुखैक-रूप सब काल।
काम-भोग-वर्जित स्वाभाविक राधा-हृदय रहित जग-जाल॥
महामोह-तम-रजनी-विरहित प्रकट प्रेम-रवि-ज्योति अपार।
कृष्ण-स्मरणपूर्ण शुचि जीवन अर्पित सहज अखिल आचार॥
प्रियतम परम श्यामकी स्मृतिमें हु‌ई राधिका अति तल्लीन।
स्वयं हो गयी ’स्मृतिरूपा’ वह अपनी सुधिसे हु‌ई विहीन॥
श्यामा, श्याम, श्यामकी स्मृति-इस त्रिपुटीका हो गया अभाव।
रहे नहीं आस्वाद्यास्वादन, रहा न आस्वादकका भाव॥
स्मृति, स्मृतिकर्ताके अभावमें उपजा मनमें भाव नवीन।
विस्मय परम हु‌आ जब दीखा, खाली हृदय सहज स्वाधीन॥
जानें कैसे दीं दिखलायी, भाव भरी आँखें पल एक।
पता नहीं क्यों, जाग उठा कुछ, हार चला सब बुद्धि-विवेक॥
दीखा नेत्र-भावमें उसको रसका बहता विमल प्रवाह।
उसके प्रति आया द्रुत गतिसे, भरा शून्य उर अमित अथाह॥
उदय हु‌ई जिजासा, थे ये किसके नेत्र सुधा-रस-पूर।
रस-वन्यासे किया उसे अति विवश, विचित्र मधुर मद चूर॥
बसे नेत्र, नेत्रोंके द्वारा, आकर उर-मन्दिर तत्काल।
बता दिया उन नेत्रोंने, वे नेत्रवान्‌ हैं श्रीनँदलाल॥
टूट गया तब मनका बन्धन, बरबस तुरत हु‌आ अभिसार।
कहाँ, कौन, वह क्योंजाती है, रहा न इसका तनिक विचार॥
चली तीरकी तरह लक्ष्यपर मिला स्वयं प्रियका संधान।
पहुँच गयी वह प्रिय चरणोंमें देखे चरण-जलज रस-खान॥
देख मृदु स्मित, दृष्टि-भंगिमा, चिा-विाहारी भ्रू-भंग।
बाह्य चेतना गयी, पड़ी प्रिय अङङ्क, शिथिल सब अवयव-‌अंग॥
सिर कर धर, कर पवन, कराया प्यारीको प्रियतमने चेत।
सहमी, उठी दूर जा बैठी, देख रही माधुर्य-निकेत॥
देख वदन मोहन रसवर्षी हु‌आ हृदय साहस-संचार।
बोली मधुर विनम्र वचन शुचि बनकर स्वयं ’दैन्य’ साकार॥
मिटे अहंता-ममता, आशा-तृष्णा, भोग-वासना-काम।
हो समत्व सर्वत्र सर्वदा मिटे द्वन्द्वका भेद तमाम॥
रह न जाय जब कल्पित-सा भी भुक्ति-मुक्ति-‌इच्छाका लेश।
परम शान्तिका अनुभव हो जब, तब खाली हो हृदय अशेष॥
जिसका हृदय हो गया खाली पूरा, यों न रही कुछ चीज।
उसमें पड़ता पावन रसमय ’प्रिय-सुख-सुखी प्रेम’ का बीज॥
पा वह प्रेमी जन-मनके मधुमय निर्मल रस-जलका संग।
बचनावलि-‌अनुकूल-पवन पा बीज बदलता अपना रङङ्ग॥
होता वह अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित, देता मधु फल-दान।
मिलता परमाह्लाद मुझे, मन बढ़ता अति लालच निर्मान॥
इसीलिये मैं सदा चाहता रहे नित्य वह मेरे पास।
पलभर, तिलभर भी न परे हो, रस-समुद्र आह्लाद-निवास॥
केवल परमाह्लाद-लालसा ही न मुझे करती लाचार।
प्रेम वही बन जाता मेरे जीवनका केवल आधार॥
पर उस रसका उदय कठिन अति, नहीं सहज सभव संसार।
हार गये ऋषि-मुनि, योगी-त्यागी, सुरपति, बिधि, मर्दनमार॥
राधे! तुम स्वरूपतः ही हो सहज उसी रसकी भंडार।
तुममें सदा उमड़ता रहता दिव्य प्रेम-रस-पारावार॥
रखती तुम मुझको जीवन, मन-तन-धन दिव्य गुणोंसे युक्त।
देकर निज सर्वस्व बढ़ाती महिमा नित सुषमा-संयुक्त॥
मेरे जीवनकी आशा तुम, मेरी एक सहाय उदार।
मेरे प्राणोंकी स्पन्दन तुम, परम हृदय-गति प्राणाधार॥
न हो ’दाहिका’ शक्ति अग्रिमें, न हो सूर्यमें ताप-प्रकाश।
अग्रि-सूर्य तब नहीं कहाते हो जाता अस्तित्व-बिनाश॥
इसी भाँति मैं, शक्ति-राधिका! हो जाऊँ यदि तुमसे हीन।
रहे न कुछ भी साथ मेरी, बन जाऊँ अस्तित्व-विहीन॥
शक्तिमान्‌ मैं बना तुहींसे, तुहीं नित्य हो मेरी शक्ति।
हटती नहीं हृदयसे मेरे किसी तरह तुममें आसक्ति॥
जैसे चाहे खेल खिला‌ओ, जैसे जँचे करा‌ओ नृत्य।
तुम स्वामिनि सब भाँति एक नित, मैं नित सहज तुहारा भृत्य॥