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एक दिना मिलि प्यारी-प्रीतम / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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एक दिना मिलि प्यारी-प्रीतम कुसुम-सरोवर गये नहान।
सखी-मंजरी चली संग लै वसनाभूषन अति अवधान॥
गुप्त-घाट जल अमल सुगंधित प्रविसे दो‌उ अति सुख स्वच्छंद।
रहि बाहर सखिगन, चर्चा-रत भ‌ई प्रिया-प्रिय की सुख-कंद॥
लागे करन परस्पर दो‌ऊ जल में बिबिध भाँति कल्लोल।
अन्हवाये दो‌ऊ दो‌उन कौं बाढ्यो अमित रंग-रस-रोल॥
× × ×
भूले निज-निज रूप, भ‌ई बिपरीत दुहुन कौं निज परतीति।
प्रीतम प्यारी, प्यारी प्रीतम, समुझे हो बिभोर रस-रीति॥
लगी सजावन प्यारी पिय कौं उन्हें समुझि प्यारी अति नेह।
पहिरायौ निज नील बसन, कंचुकि रुचि आभूषन सब देह॥
यही भाँति पिय प्यारी कौं पहिरायौ अपनौ पट रँग पीत।
पुरुष समान लाँग दै, सब आभरन सजाये सुंदर रीत॥
स्याम बने स्यामा सब बिधि सौं, बनी मनोहर स्यामा स्याम।
निकसे, निरखि सखी बिहँसी सब अति विपरीत वेष अभिराम॥
सहमि गये प्यारी-प्रीतम, लखि हँसिबै कौ रहस्य अजात।
’क्योंतुम हँसी देखि हमरे तन’-पूँछीं सखियन सौं यह बात॥
हँसि बोली सखि ’देखौ पिय-प्यारी तुम निज बसनन की ओर’।
देखत ही सकुचे दो‌उ, बिहँसे, छूटी हँसी अमित सब छोर॥