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नहीं तुहारा अन्तर देखा / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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नहीं तुहारा अन्तर देखा, देखे नहीं भीतरी भाव।
भूलभरी अपनी आँखोंसे देखा बाहरका बर्ताव॥
भूल गयी मैं शील तुहारा सहज नित्य निर्मल निर्दोष।
अपने दृष्टि-दोषसे मुझको दिये दिखायी तुममें दोष॥
जाने लगे श्यामसुन्दर जब तुम मथुरा, हो रथ-‌आरूढ़।
लगी समझने निष्ठुर निर्दय प्रेमशून्य मैं तुमको मूढ़॥
यद्यपि तुम निज आत्मा-मनको छोड़ गये थे मेरे पास।
लोक-दिखा‌ऊ तनसे जाते भी, थे अतिशय खिन्न, उदास॥
मेरे शुद्ध प्रेमका करके जान-बूझकर तुम अपमान।
जाते हो, माना, अकुलायी, लगी चोट, भडक़ा अभिमान॥
प्रेमरहित मिथ्या अभिमानिनि मुझ कुटिलाका यह दुर्भाव।
डाल न सका तुहारे निर्मल प्रेम-सूर्यपर किंतु प्रभाव॥
हु‌ए प्रकट, नित नव-वर्धन-सौन्दर्य कमल-मुख किये मलान।
अपराधी-से खड़े हो गये, मस्तक नीचा किये अमान॥
नित्य अधर मुस्कान मधुरयुत मदन-मनोहर नित्य किशोर।
क्योंहो रहे खिन्न यों ? परमानन्द-सिन्धु मुनि-मानस-चोर॥
देख सहम मैं गयी, मलिन मुख-शशि, मन उमड़ा दुःख अपार।
बोल न सकी, बह चली नेत्रोंसे उाप्त अश्रुकी धार॥
बोले-’अति अगाध प्रेमोदधि-रूपे हे राधे! सुख-खान।
तेरे गुण-सौन्दर्य-सुधा अनुपमसे पोषित मेरे प्राण॥
तेरे बिना नहीं क्षण भर भी है मेरा सभव अस्तित्व।
तू ही मेरी जीवन-जीवन, तू ही मेरी जीवन-तत्व॥
आत्मा तो तू ही है मेरी, तू ही मेरी है आधार।
तुझसे ही मैं हूँ, तुझसे ही चलते ये सारे व्यापार॥
नहीं गया था तुझे त्याग मैं, नहीं कहीं जा सकता त्याग।
मेरे प्राणोंका है बस, परमाश्रय, तेरा ही अनुराग॥
देह गया था मथुरा, सो भी लोक-दृष्टिसे ही केवल।
पर कर दिया उसीने आह्लादिनि! तुझको अत्यन्त विकल॥
तेरी इस व्याकुलतासे ये प्राण रो उठे, हो उद्विग्र।
प्राणरूप-‌अनुराग इसीसे हु‌आ तुरंत शोक-संलग्र॥
शोकाकुल अनुराग-प्राणमें उठी त्वरित आतुरता जाग।
खड़ा कर दिया मुझे उसीने तेरे समुख ला, बड़भाग॥
कर अपराध क्षमा हे करुणामयी! क्षमामयि! स्नेहागार!
निज-स्वरूप-महिमामयि स्वामिनि! नित्य सहज ही रहित विकार॥
हो प्रसन्न-मुख देख सकृत इस अपने आश्रित तनकी ओर।
ह्लादिनि! मुझे हँसा दे, हँसकर, रससागरे! न जिसका छोर॥
नहीं समझना कभी मुझे रचकभर भी अपनेसे भिन्न।
दिव्य अभिन्न प्रेमरस-सागर नित्य-निरन्तर अपरिच्छिन्न॥
प्रियतमके सुन वचन, भाव दर्शन कर, मैं हो गयी निहाल।
सदा बिकी बेमोल, पड़ी आतुर प्रिय-पद-पंकज तत्काल॥