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नव-निकुज में कृष्ण प्रेष्ठस्न्तम / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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नव-निकुजमें कृष्ण प्रेष्ठस्न्तम थके शरीर पधारे आज।
श्रान्त कलेवर था, सुभालपर श्रम-कण-बिन्दु रहे थे भ्राज॥
राधा श्रमित देख प्रियतमको हु‌ई दुखी, कर मधु मनुहार।
सुला दिया कोमल कुसुमोंकी शय्यापर प्रियको, दे प्यार॥

करने लगी तुरत सुरभित पंखेसे, उनको मधुर बयार।
श्रम कम हु‌आ, स्वेद-कण सूखे, राधाको सुख हु‌आ अपार॥
करने लगी पाद-संवाहन मृदु कर-कमलोंसे अति स्नेह।
श्रान्ति मिटी, मोहन-मुखपर बरसा मृदु-मधुर हास्यका मेह॥

राधाने चाहा-’प्रियतम अब कर लें निद्राको स्वीकार।
सो जायें कुछ काल, बढ़े जिससे शरीरमें स्ड्डूर्ति-सँभार’॥

नेत्र निमीलित हु‌ए श्यामके, सोये सुखकी नींद मुकुन्द।
शायित प्रियको देख परम सुख, बढ़ा अमित राधा-‌आनन्द॥

होने लगे उदय तनमें आनन्द-चिह्न फिर विविध प्रकार।
हु‌आ उदय जब ’स्तभ’, पाद-संवाहन छूटा तब ’क्षण’ बार॥
प्रकट हु‌आ ’सेवाव्रत’, तत्क्षण बोला श्रीराधासे आप।
’सेवानन्द-विभोर! किया कैसे सेवा तजनेका पाप’॥

चौंकी, सजग हो गयी राधा, मनसे निकली करुण पुकार।
बना विघ्र ’सेवा’ का ’सेवानन्द’ जान, देकर धिक्कार॥
तिरस्कार कर उसका बोली-”मैं मन रख निज सुखकी चाह।
आनँद-मग्र हु‌ई, सेवाकी मैंने की न तनिक परवाह॥

सचमुच मैंने किया आज यह घोर पाप, अतिशय अपराध।
सेवा-त्याग रखी मन मैंने ’सेवानन्द’-विघ्रकी साध॥
कौन स्वार्थसे सनी जगत्‌में मेरे-जैसी होगी अन्य।
जो न कर सकी प्रियतम-सेवा रख ’सेवाव्रत’-भाव अनन्य”॥