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हजार चिंताओं के बीच / लक्ष्मीकान्त मुकुल
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भोर के खिलाफ
उठता है कोर से धुआं
और धुंध्लके को चीरता हुआ
पहुंच आता है मेरे गांव में
मां रोटियां नहीं बेल पाती
सीझ नहीं पाती लौकी उसके चूल्हे पर
तड़पफड़ाकर सूख जाते हैं
दीवाल की योनियों में
अंखुवाकर उगे कुछ मदार
भूल जाते पिता
रेत होती नदियों के घाट
धूल भरी आंध्यिों के बीच
झुझला जाता है मेरा तटवर्ती गांव
बूढ़ी मां का पफौजी बेटा
चला जाता है बीते वसंत की तरहलाल चोंच वाले पंछी 13
धुल जाती है कुहरे में
नन्हों की किलकारियां
महुआ बीनती हुई
हजार चिंताओं के बीच
नकिया रही है वह गंवार लड़की
कि गौना के बाद
कितनी मुश्किल से भूल पायेगी
बरसात के नाले में
झुक-झुककर बहते हुए
नाव की तरह
अपने बचपन का गांव।