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कौए का शोक-गीत / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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घर के सामने ऊँचे मचान पर
आज सुबह से ही बैठा है एक कौवा
दूसरा उड़ता हुआ
चला गया है अमरूद की डहंगी पर
वहां मचा है कांव-कांव
हलवाहे फेर रहे होते हैं
जब परिहथ पर हाथ
ठीक उसी वक्त
हमारे उपर उचरने लगता है कौवा
कांव-कांव
कांव-कांव..
उनके बोलते ही कभी
भरकने लगती थी चूल्हे की अंगीठी
सगुन के आगम की ताक में
चहकने लगती थी मां
बरसों का बहका भाई
उनके बोलते ही
शाम ढलने तक
लौट आता था अपने घर
जाने कैसी ये हवा बही
कि गरमाते हुए इस गांव की
गहरी उदासी लिए अब
केवल झंपते दीख रहे हैं कौवे
लोग मगन हो
कर रहे होते हैं अपने काम
उन्हें अब नहीं सुनाई देता
कहीं भी कौवा-गादह
चिंतित है वह बहरा बूढ़ा
कई दिनों से
पफुसपफुसा कर कहता है-
‘कौवों का चुप रहना शुभ नहीं होता’।