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अंधेरी दौड़ में / लक्ष्मीकान्त मुकुल
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रेतीली महलें
जूझ रही हैं आंध्यिों से
खड़खड़ा रही हैं अब भी खिड़कियां
ध्क्कमधुकी में चड़चड़ा रहे हैं
कमरों को टिकाये सारे दरवाजे
अपनी बाहों के सहारे
समय की तमाम मर्यादाओं के साथ
प्रलय की इस अंधेरी दौड़ में
आते-जाते रहते हैं हम सब भी
अपने कलेजे के टभकते सवालों के द्वंद्व में।