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सिंयर-बझवा / लक्ष्मीकान्त मुकुल
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दौड़ रहे हैं उनके पांव
समय के हाशिए की पीठ पर
वे सियर-बझवे हैं
शिकारी कुत्तों के साथ उछलते हुए
जैसे कोई प्रश्न प्रतीक
घुल गये हैं उनके शब्द
स्यारों की संगीत में
उनके चिकरते ही
फूट पड़ती है आदिम मानुष की
धूमिल होती स्वरलहरियां
जो गड्डमड्ड हो चुकी हैं
अनगढ़ी सभ्यताओं से रगड़ खा के
खोता जा रहा है मकई और ईख के खेतों में
उनकी पदचाप
रात गये स्यारों की आवाज
सीवाने पर अब भी
सिसकियों की ओस में भिनती रहती हैं
जैसे खामोशी में दपफन होती
चट्टानी खेतों की कब्र में
अनायास ही चले जा रहे हों सियर-बझवे