भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गांव बचना / लक्ष्मीकान्त मुकुल
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:28, 29 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लक्ष्मीकान्त मुकुल |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)
बचना मेरे गांव
बाढ़ में डूबते
ओस में भींगते हुए बचना
बच्चों की खिली आंख में
खेतों की उगी घास में
गांव बचना
ताकि हदस न जाये नीम का पत्ता-पत्ता
उजड़ न जाये सुगिया का महकता बाग
भस न जाये कुओं की चौड़ी जगत
मेरे प्यारे गांव!
मलय पवनों के साथ
आ रहीं विषध्र हवाओं से बचना
मेरे लौटने तक
सबको नींद में डराते हुए
हजार बांहों वाले दैत्यों से बचना
बचना बूढ़ों की जलती हुई भूख में
बोझ ढोती औरतों की प्यास में
गांव बचना
कि इस युग में कुछ भी नहीं बचने वाला
माटी कोड़ती
सुहागिनों के मंगल-गीत में बचना
बचना दुल्हिन की
चमकती हुई मांग में
बचना
जैसे बच जाती हैं सात पुश्तों के बाद भी
धुंध्ली होती पूर्वजों की जड़ें!।