Last modified on 29 जून 2014, at 13:45

प्रसंग / लक्ष्मीकान्त मुकुल

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:45, 29 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लक्ष्मीकान्त मुकुल |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आजायबघर को देखते हुए
जब कभी आती हैं हमें झपकियां
चले जाते दूर कहीं दूर
बचपन के दिनों की
मां की कहानियों में
किसी दानव के अहाते में पैर रखते ही
थरथरा जाते राजकुमार के पांव
और हमारे भी
या कभी भाग जाते
मनिहारिन के गांव की
अंतहीन गलियों में
जहां बगल से गुजरती थी नदी
जिसमें डूबकियां लगाते ही खो जाया करते थे
नींद उचटते ही
बदल चुकी होती है पूरी दुनिया
हमारी पहचान खत्म हो चुकी होती है
हमें कोई काम नहीं मिल पा रहा होता
हमारे बच्चे भूल गये होते हैं
स्कूल से निकलते हुए
हमारी घरनियां लूट गयी होती हैं
कितनी झूठी आशाएं थीं
मां की वे कहानियां
सपफेद झूठ
जिनको आज संजोते वक्त
सपनों के मोती बिखर जाते हैं
अनायास ही।