Last modified on 29 जून 2014, at 13:59

जंगल गांव के लोग / लक्ष्मीकान्त मुकुल

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:59, 29 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लक्ष्मीकान्त मुकुल |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कोस भर से ही
दीखती है सघन पेड़ों की लकीर
जंगल है वह गांव
झड़बेरियों से घिरा हुआ
वहां लोग चलते हैं
अजगरों की पीठ पर बैठकर
नेवले से होती है उनकी दोस्ती
रात में फद-फदकर
उड़े वाली काली चिड़िया
चली आती है उनकी नींद में
गूंज जाती खलिहानों में
मानर की ताल
खेत जलने लगते
सूख जातीं कांट-कूस की खुत्थियां
दमकने लगता लालछहूं आसमान
जंगल में गांव
गांव में घर
घर के लोग बना लेते
बांस का तीर-कमान
पकड़ लाते लाल ठोर सुगना
हाट घूम आते
जिनके पास नहीं था गांव
घर नहीं था, विरासत में नहीं
मिली थी मानर की थिरकन
वे पसरे हुए जंगल में
तलाश लेते जलती हुई पफरनाठियां
और चल देते दबे हुए पांव
अंतहीन राह में।