कोस भर से ही
दीखती है सघन पेड़ों की लकीर
जंगल है वह गांव
झड़बेरियों से घिरा हुआ
वहां लोग चलते हैं
अजगरों की पीठ पर बैठकर
नेवले से होती है उनकी दोस्ती
रात में फद-फदकर
उड़े वाली काली चिड़िया
चली आती है उनकी नींद में
गूंज जाती खलिहानों में
मानर की ताल
खेत जलने लगते
सूख जातीं कांट-कूस की खुत्थियां
दमकने लगता लालछहूं आसमान
जंगल में गांव
गांव में घर
घर के लोग बना लेते
बांस का तीर-कमान
पकड़ लाते लाल ठोर सुगना
हाट घूम आते
जिनके पास नहीं था गांव
घर नहीं था, विरासत में नहीं
मिली थी मानर की थिरकन
वे पसरे हुए जंगल में
तलाश लेते जलती हुई पफरनाठियां
और चल देते दबे हुए पांव
अंतहीन राह में।