भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यह मन मोहन में न समानो / स्वामी सनातनदेव
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:09, 25 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वामी सनातनदेव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)
राग ईमन, तीन ताल 1.7.1974
यह मन मोहन में न समानो।
मोहन ही ने या मनमे सखि! कीन्हों आय ठिकानो।
जब देखो सम्मुख ही ठाड़ो, देखि-देखि मुसिकानो।
मैं तो भई स्याम की ही, कोइ मानो वा मत मानो॥1॥
आठों पहर चढ़्यौ चित पै वह अग-जग सभी भुलानो।
घर के काम-काज सब छूटे, परिजन देहिं उल्हानो॥2॥
मैं का करूँ सुहात न अब कछु, मोहिं मिल्यौ मन-मानों।
जानूँ नाहिं करेगी का वह, वह जानो तो जानो॥3॥
शब्दार्थ
<references/>