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अफ़वाह / शरद कोकास
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उड़ीं-उड़ीं वे उड़ीं
कानोंकान फैलीं
गाँव गाँव शहर-शहर
देश भर फैलीं
पाँव नहीं थे उनके
पर रेंगीं नहीं वे
पंख नहीं थे उनके
फिर भी वे मीलों उड़ीं
किसी महामारी की तरह फैलीं
वे बढत्रीं और सुरसा का मुँह बन गईं
धुएँ का गुबार थीं वे
काले बादलों से भरा डरावना आसमान
तूफानी हवा का तेज़ झोंका
वे फैलीं और शहर जला
वे फैलीं और दंगा फैला
जरूरी थी ऐसे वक़्त
धीरज की एक ढाल
सामना करने की ताक़त
तमाम हालात को मद्देनजर रखते हुए
कहना चाहिए
सबसे ज़्यादा ज़रूरी थी
सच की रोशनी में
उसकी जाँच पड़ताल
उससे ज़्यादा ज़रूरी थी
ख़ुद की जाँच पड़ताल।