भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भाई सोचें / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:35, 14 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र |अनुवादक= |संग्रह=स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आप अकेले ही
जंगल में हरियाये
भाई सोचें, यह कैसा सुख
 
दहे आग में
अपनी रितु के बीज सभी
नदी-किनारे
सुलग रहे हैं पेड़ अभी
 
सब मुरझाये
आप नहीं बस मुरझाये
भाई सोचें, यह कैसा सुख
 
राख-हुए दिन के माथे पर
सिंदूरी टीका
यह सूरज भी बड़ा बावरा
इसका जस फीका
 
इधर चिता के पास
खड़ा यह मुसकाये
भाई सोचें, यह कैसा सुख
 
जंगल में एकाकी होकर
आप करेंगे क्या
अगले पतझर में भी, भाई
नहीं झरेंगे क्या
 
अभी अनूठेपन से
अपने भरमाये
भाई सोचें, यह कैसा सुख