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बार अंध्यारनि मैँ भटक्यो हौँ / दास

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बार अंध्यारनि मैँ भटक्यो हौँ ,
निकारयो मैँ नीठि सुबुद्धिन सोँ धरि।
बूढ़त आनन पानिय भीर,
पहीर की आंड़ सोँ तीर लग्यो तिरि।
मो मन बावरो योँ ही हुत्यो ,
अधरा मधु पान कै मूढ़ छक्यो फिरि।
दास कहौ अब कैसे कढ़े ,
निज चाय सो ठोढ़ी के गाड़ परयो गिरि।

दास का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।