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तृतीय खंड / केनोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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विजयाभिमानी देवों ने माना स्वयम को ब्रह्म ही।
अतिशय अहंकारी बने, होता विनाशक अहम् ही॥
केवल निमित्त थे देवता, यह ब्रह्म की ही विजय थी।
माध्यम थे केवल देवता, शक्ति प्रभु की अजय थी॥ [ १ ]

मिथ्याभिमानी देवताओं से, दयानिधि विज्ञ थे।
भक्त वत्सल भक्त वत्सलता से भी तो कृतज्ञ थे॥
हित दर्प नाश को, दिव्य यक्ष के रूप में प्रभु आ गए।
लख दिव्य रूप विराट अद्भुत देवता चकरा गए॥ [ २ ]

इन्द्र देव ने, अग्नि देव से, नम्र होकर यह कहा।
भलिभांति जानिए कौन है अति दिव्य यक्ष महिम महा॥
श्री अग्नि देव को बुद्धि शक्ति का अधिक ही कुछ गर्व था।
इति विदित करता हूँ अभी, है कौन मुझसे अन्यथा॥ [ ३ ]

अति दिव्य यक्ष का अग्नि देव से प्रश्न था तुम कौन हो ?
हे! अहम मन्यक देवता क्या तुम ही सार्वभौम हो  ?
"मैं तेज पुंज स्वरूप हूँ", प्रसिद्ध अग्नि हूँ अति महे।
तुम कौन जो जाना नहीं, मुझे जातवेदा सब कहें॥ [ ४ ]

हे जातवेदा ! अग्नि नाम के, शक्ति क्या सामर्थ्य है ?
उत्तर दिया तब अग्नि ने, सगर्व जिसका अर्थ है॥
पृथ्वी में यह जो कुछ भी है, सब मेरी ही सामर्थ्य है।
क्षण मात्र में करूं भस्म सब, मुझे कुछ नहीं असमर्थ है॥ [ ५ ]

रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने अग्नि देव के सामने।
करो भस्म तो जानूँ भला, अग्नित्व कितना आपमें॥
पूर्ण दाहक शक्ति व्यर्थ थी, मौन हतप्रभ आ गए।
यह दिव्य यक्ष महामहिम, अनभिज्ञ हम चकरा गए॥ [ ६ ]

तब वायुदेव से देवों ने जाकर कहा अब आप ही।
भली भांति करिए ज्ञात कि है कौन यह अतिशय मही॥
अप्रतिम शक्तिमय वायुदेव को बुद्धि शक्ति का गर्व था।
अभी दिव्य यज्ञ को ज्ञात कर मैं, दूर करता हूँ व्यथा॥ [ ७ ]

अति दिव्य यक्ष का वायु देव से प्रश्न था तुम कौन हो ?
हे! अहम् मन्यक वायु देव क्या तुम ही सार्वभौम हो ?
उत्तर दिया तब वायु ने, गुण गर्व गौरव दर्प से।
मातरिश्रिवा हूँ प्रसिद्ध वायु, सृष्टि मम संसर्ग से॥ [ ८ ]

भू द्यौ में वायु देव तो, आधार बिन विचरण करें।
सामर्थ्य शक्ति का आप तो, मुझसे भी कुछ विवरण करें॥
उत्तर दिया यह वायु ने, मेरी शक्ति इतनी भव्य है।
सब कुछ उड़ा दूँ निमिष में, पृथ्वी में जो दृष्टव्य है॥ [ ९ ]

रखा एक तिनका दिव्य यक्ष ने वायु देव के सामने।
इसको उड़ा दो जानूँ, कितना वायु तत्व है आपमें॥
शक्ति प्रभु ने रोकी तो फिर, वायु तत्व का अर्थ क्या ?
लज्जित हो लौटे, दिव्य यक्ष के ज्ञान की सामर्थ्य क्या ? [ १० ]

फिर इन्द्र देव से देवताओं ने कहा अब आप ही।
जानिए कि कौन है, अति दिव्य यक्ष महिम मही॥
इति तथा कथ दिव्य यक्ष के निकट इन्द्र त्वरित गए।
वह आदि ब्रह्म तो निमिष मात्र में ही तिरोहित हो गए॥ [ ११ ]

फिर यक्ष के स्थान पर ही, इन्द्र स्थित रह गए।
उमा रूपा ब्रह्म विद्या को देख हतप्रभ रह गए॥
सर्वज्ञ ज्ञाता उमा रूपा, मर्म यक्ष का आप ही।
कुछ कहें सादर विनत हूँ, सर्वज्ञ आपसा है नहीं॥ [ १२ ]