भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जो राख होने से बचे हैं... / ब्रजेश कृष्ण

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:06, 17 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रजेश कृष्ण |अनुवादक= |संग्रह=जो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बड़ा और बहुत बड़ा तो
कुछ भी घटित नहीं होता
हर एक की ज़िन्दगी में
मगर छोटी-छोटी बातों
और अपने हिंसक समय के टुकड़ों से बनी
किसी की ज़िन्दगी
इतनी मामूली भी नहीं होती इस पृथ्वी पर
कि उसे दरकिनार कर सके कोई आसानी से

मामूली दुकान की मैली बेंच पर
चाय पीते लोगों के साथ
गुज़ारे गये समय का स्वाद
इसीलिये बहुत देर तक
रहता है जु़बान पर

ध्वस्त हुए लोगों की बची हुई आग
मामूली नहीं होती
यह देर रात तक
जलाती और जगाती है उन्हें
जो पूरी तरह राख होने से
बचे हैं अभी तक।