गीत प्रीति के लिखता हूँ मैं
करता कोई पाप नहीं हूँ;
खुल कर गाता हूँ मस्ती में
करता पश्चाताप नहीं हूँ।
मेरे दृष्टा ऋषि-मुनियों ने
शक्ति काम की थी पहचानी;
मूल प्रेरणा-óोत सृजन का
शक्ति काम की ही थी मानी।
इसीलिए रख दिया उन्होंने
उसको देवों की श्रेणी में;
सिद्ध हुआ वरदान वही
मानता उसे अभिशाप नहीं हूँ।1।
उसका ही देवत्व बनाता
है मुझको नर से नारायण;
तभी सृजित कर पाता हूँ मैं
‘कामयनी’, ‘वेद’, ‘रामायण’।
‘मेघदूत’, ‘गीता’, ‘गीतांजलि’
पता नहीं कब लिख जाता हूँ,
उसकी ही प्रेरणा लिखाती
लिखता अपने आप नहीं हूँ।2।
भगता नहीं, भोगता हूँ मैं
सुख-दुख, मिलन-विरह-बिछूड़न के;
किंतु कभी भी बँधा नहीं हूँ
मैं इनके रूपाकर्षण से।
जो अनुभूत सत्य है, शिव है
उसको दे सौंदर्य गीत का
मीरा, सूर, महादेवी बन
गाता, दुमुहाँ साँप नहीं हूँ।3।
हर जड़-चेतन के अन्तर में
कामदेव की मूर्ति सलोनी;
भग्न हो गई अगर कहीं वह
तो फिर रस की सृष्टि न होनी।
हुआ रंक रसराज अगर-
होगा विष-राज विकृतियों का ही;
अतः मानता कामदेव का
भस्म किया जाना न सही हूँ।4।
3.4.85