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संज्ञाहीन संज्ञा / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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मुझे नया इंसान चाहिए।

आज जो कि आदमी यहाँ
उसके नाखून अभी बाकी हैं,
आँखों में भी अभी आग-से
जलते जेठ-जून बाकी हैं।
भरना उसकी जगह नहीं
आसान, खूब अहसास मुझे है
लेकिन उसकी पूंछ उड़ा-
देने का भी विश्वास मुझे है।
नया स्वरूप-विधान चाहिए
मुझे नया इंसान चाहिए।1।

जीता है जिन्दगीआज का
मनुज भरे गंदे नालों की;
कहाँ उसे अनुभूति गिर रहे
ऊपर गंदे परनालों की।
यह वह संज्ञा है जो बिल्कुल
आज हुई संज्ञा-विहीन है,
रटता है वह अर्थ अर्थ का
कुंजी से, जो अर्थहीन है।
नये कोष का ज्ञान चाहिए
मुझे नया इंसान चाहिए।2।

अजगरकरता नहीं चाकरी
पंछी करता काम नहीं है,
नहीं मानता मैं यह दर्शन
सब के दाता राम नहीं हैं।
हम पी रहे भाग्य की मदिरा
और जी रहे फुटपाथों पर,
‘विधि का लिखा को मेटन हारा’
की अर्द्धाली को गा-गा कर।
इस दर्शन से त्राण चाहिए
मुझे नया इंसान चाहिए।3।

हिम-से श्वेत-स्वच्छ वस्त्रों पर
रहा मुझे विश्वास नहीं है,
धवल चाँदनी की साड़ी का
भी अब वह इतिहास नहीं है।
साधु-फकीर वेष के धारी
धरती की बेटियाँ छल रहे,
संत-महंतों की आस्तीनों
में जहरीले साँप पल रहे।
नया वेष-परिधान चाहिए
मुझे नया इंसान चाहिए।4।

सोने-चाँदी की ईंटों से
बने हुए जो धर्म-क्षेत्र हैं,
आज बने वे अपने बंधु-
बाँधवों के ही कुरुक्षेत्र हैं।
मुझे चाहिए नहीं धर्म वह
जो मुझको धृतराष्ट्र बना दे
नहीं चाहिए वह ईमान कि
जो मेरा ईमान डिगा दे।
नया धर्म-ईमान चाहिए
मुझे नया इंसान चाहिए।5।

धरती की बेटी को हर कर
आज ले गया फिर रावण है,
मेघनाद के शक्ति-बाण से
आज मूर्च्छित फिर लक्ष्मण है।
जला रावणी स्वर्ण-छावणी
सीता खोज पुनः लाने को
उठा हथेली पर रख हिमगिरि
संजीवन-औषधि लाने को
मुझे नया हनुमान चाहिए।
मुझे नया इंसान चाहिए।6।

8.5.85