भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रिश्तों का मन / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:37, 6 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी |अनुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
टूट गया यदि भारत ही तो
मंदिर-मस्जिद का क्या होगा?
टूट गया यदि रिश्तों का मन
देव-फरिश्तों का क्या होगा?
देश बड़ा है या कि बड़े हैं
मंदिर-मस्जिद औ’ गुरुद्वारे;
समय आ गया है सोचं यह
मिल कर भारतवासी सारे।
टूट गया यदि हिमगिरि ही तो
गंगा-जमुना का क्या होगा?।1।
हम सब साथ-साथ सदियों से
हिलमिल कर रहते आए हैं;
कबिरा-तुलसी-गुरु नानक का
संगम हम बनते आए हैं।
सूख गया वह संगम ही तो
धार त्रिवेणी का क्या होगा?।2।
सर्वोपरि है राष्ट्र, राष्ट्र के
मंगल में सब का मंगल है;
बापू की प्रार्थना-सभा से
मिला रामधुन का सम्बल है।
टूट गया सम का स्वर ही तो
ईश्वर-अल्ला का क्या होगा?।3।
8.1.91