आकर्षण तो बहुत तुम्हारा
लेकिन मेरी भी मजबूरी;
कैसे मैं तय करूँ बताओ
धरती-आसमान की दूरी?
पता-ठिकाना सही तुम्हारा
अब तक कोई बता न पाया;
पता लगा तो इतना ही बस
तुमने मुझको भी बुलवाया।
आमंत्रण तो बहुत तुम्हारा
लेकिन मेरी भी मजबूरी;
सोच रहा-अब तक क्यों तुमने
पाती की की रस्म न पूरी?॥1॥
देखा नहीं अभी तक तुमको
लेकिन जो कुछ सुना-गुना है;
उससे ही मानस-दर्पण में
एक तुम्हारा बिम्ब बना है।
सम्मोहन वह बहुत तुम्हारा
लेकिन मेरी भी मजबूरी;
तब से ही मैं समाधिस्थ हूँ
किंतु समाधि लगे तो पूरी?॥2॥
यह तो है अनुभूति मूर्ति तुम
सत्य-शिव-सुंदरम् की हो;
वेद-ऋचाओं सी मंगलमय
ध्वनि तुम विश्वमंगलम् की हो।
अनुभावन यों बहुत तुम्हारा
लेकिन मेरी भी मजबूरी;
कैसे व्यक्त करूँ भावां को
भाषा में सामर्थ्य न पूरी॥3॥
नहीं अकेला ही मैं हूँ जो
बँध हुआ इस आकर्षण में;
बँधी ुई यह सृष्टि सभी इस
आकर्षण के उद्दीपन में।
आलंबन चुम्बकी तुम्हारा
लेकिन मेरी भी मजबूरी;
पारस-सा आश्रय न बन सका
रही साधना अभी अधूरी॥4॥
जब तो सिर्फ तुम्हीं बतलाओ
कैसे आऊँ पास तुम्हारे;
मैं अब थक भी गया बहुत हूँ
चलते-चलते साँझ-सकारे।
संबोधन सुन रहा तुम्हारा
लेकिन फिर भी है मजबूरी;
संबोधन, कर्ता कारक में
है पूरब-पश्छिम की दूरी॥5॥
अब तो लगता है तुमको ही
चल कर मुझ तक आना होगा;
था अनुबंध जो कि दोनों में
वह अब तुम्हें निभाना होगा।
पागलपन था अनुबंधन वह
पर वह भी था बड़ा जरूरी
पागलपन से ही होती तय
धरती-आसमान की दूरी॥6॥
19.3.92