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सौंगंध, / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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आज अभूतपूर्व संकट में
फंसा देश का कोना-कोना,
मेरे प्यारे देशवासियो!
संयम-धैर्य-विवेक न खोना।

खिंची हुईं नफरत-हिंसा की
तलवारें मौनी म्यानों से,
छूटा देश बहुत पीछे है
नेताओं के अरमानों से।
लगा मुखौटे तरह-तरह के
रचा रहे वे स्वांग घिनौना॥1॥

चले गए वे लोग देश की
खातिर जेलें भरने वाले,
आज बहुत हैं वे जो अपनी-
अपनी जेबें भरने वाले।
स्वार्थ-पूर्ति के लिए उन्हें बस
आता बीज आग के बोना॥2॥

सुलगाई जो आग उन्होंने
मिलकर हमें बुझानी होगी,
गंगा-जमुना के सगम-जल
से वह शांत करानी होगी।
कर न सके हम यह तो कुछ भी
हो सकता होना-अनहोना॥3॥

आज नहीं नोआखाली में
जाने वाला कोई गांधी
चले अकेला निर्भय होकर
रोके चलती-जलती आँधी।
अब तो अपनी लोक-शक्ति का
ही है अग्नि-परीक्षण होना॥4॥

इसीलिए इस नये साल पर,
देते हुए बधाई तुमको
करता विनय किहर कीमत पर
कुरुक्षेत्र से बचना हमको।
गीता-ग्रंथ कुरान-बाइबिल
की सौंगंध, न एका खोना॥5॥

1.1.93