उन धागों को / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
कबिरा, नानक, तुलसी ने जिन
धागां से थी बुनी चदरिया;
मेरे प्यारे देशवासियो!
उन धागों को तोड़ न देना।
कबिरा ने भरतार राम को
माना, अपने को दुलहनियाँ;
उसी प्रेम के अमर सूत्रों
से बीनी झीनी चादरिया।
उस चादर के तानों-बानों
को तुम तोड़-मरोड़ न देना॥1॥
पूरब-पश्चिम-उत्तर दक्खिन
जिधर तुम्हारा खुदा नहीं है;
उधर घुमा दो पैर हमारे
नानक को इनकार नहीं है।
‘एक नूर सब जगह’, सत्य का
कोहिनूर यह छोड़ न देना॥2॥
तुलसी ने गाया विभोर हो
‘सिया-राममय सब जग जानी’;
‘स्व’ में ‘विश्व’ को देख, कहा यह-
‘करहुँ प्रणाम जोरि युग पाणी’।
रामचरितमानस के उसके
अमृत-घट को फोड़ न देना॥3॥
‘मानुष हौं तो वही रसखान
बसौं ब्रज-गोकुल गाँव के ग्वारन;
जौ पसु हौं तो कहाबसु मेरौ
चरौं नित नंद की धेनु-मझारन’।
इन भावों के अमर स्वरों के
इकतारों को तोड़ न देना॥4॥
भारत एक महासागर है
उसका किया उन्होंने मंथन;
उस मंथन से मिले रत्न जो
उनका इस चादर में गुफन।
बन अगस्त्य तुम आक्रोश में
उस सागर को सोख न लेना॥5॥
सूख गया यदि वह सागर ही
और हुए टुकड़े चादर के;
हम होंगे नवीन भागीरथ
रेगिस्तानी रत्नाकर के।
कहीं भूल, इस समन्वयी
संस्कृति-धारा को मोड़ न देना॥6॥
अगर हो गया ऐसा, फिर-
भारत की क्या पहचान रहेगी?
व्यक्ति-अहं की दुनिया कैसे
सामाजिक इंसान बनेगी।
-संगच्छध्वम्’ के समूह स्वर-
रागों को तुम छोड़ न देना॥7॥
18.1.93