भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एगारमोॅ अध्याय / गीता / कणीक

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:21, 5 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कनक लाल चौधरी 'कणीक' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एगारमोॅ अध्याय

(गीता के एगारमोॅ अध्याय विश्वरूप दर्शन योग नामोॅ सें विख्यात छै। यै में भगवानोॅ केविराट रूप प्रदर्शित भेलोॅ छै। अर्जुन के विषाद आरो मोह में सनलोॅ मानसिकता केॅ दूर करै खातिर भगवान श्री कृष्ण केॅ विराट रूपोॅ में आबै लेॅ पड़ल्हैन। विश्वरूप के दर्शन करथै अर्जुनें भयभीत होय केॅ सर्वोच्च सत्ता के रूप में कृष्ण केॅ स्वीकार करलकै। आरो अर्जुने हौ विनाशक भयंकर रूप जेकरा में सम्पूर्ण जगत के प्राणी भीष्म-द्रोण सहित केॅ मुखाग्नि के अन्दर दाँत सें कुचली-कुचली मरतें देखलकै-अत्यन्त ही आर्त होय केॅ फेनू सौम्य रूपोॅ में आबै के बार-बार अनुरोध करेॅ लागलै। कर्त्तव्य पथ से विमुख अर्जुन केॅ कर्त्तव्य याद आबेॅ लागलै आरो श्री कृष्ण के भक्ति-श्रद्धा में लागी के प्रार्थना करेॅ लागलै। यै अध्याय के सन्देशा छै कि जबे प्राणी विनाशक स्थिति के देखै छै तेॅ ईश्वर के सत्ता महसूस करेॅ लागै छै। जेनां कोय बाढ़-सुखाड़-अकाल के चपेटा में पड़लोॅ आदमी केॅ आपनोॅ कुकर्मी आरो सुकर्मो के ख्याल करतें ईश्वर के सत्ता केॅ स्वीकारै में देरी नै लागै छै आरो बचाव लेली भगवत भजन या प्रार्थना करेॅ लागै छै। ईश्वर प्रदत्त भयंकरता ने प्राणी केॅ भक्ति पथ पर आवै लेॅ विवश करै छै)

अर्जुन कहलकै गुप्त बात
जे कृपा करी केॅ बतलैल्हौ
जेकरा सुनथै ही भ्रम शंका
हमरोॅ सब दूर करी देल्हौ॥1॥

हे कमल नेत्र! आगमन समागन, जीव के जें तोरोॅ सुनला
जेकरो महात्म्य दिव्यता सुनी, हम्में बिल्कुल कायल भेला॥2॥

हे पुरूषोत्तम! ऐश्वर्य रूप, देखै इच्छां मन व्याकुल छेॅ
यद्यपि कि तोरा देखने छी, हे परमेश्वर मन आकुल छेॅ॥3॥

जों तोहें हमरा पात्र बुझोॅ, हे योगेश्वर आपनोॅ स्वरूप
तेॅ कृपा करी केॅ देखलाबोॅ, आपनोॅ ठो बिभूति दिव्य-रूप॥4॥

भगवानें कहलकै-देख्हौ पार्थ, सैकड़ों-हजारों रूपोॅ में
नाना बिधि के दिव्योॅ से युक्त, नाना वर्णोॅ के स्वरूपोॅ में॥5॥

हे भरत पुत्र! है सुर्य, वसु, अश्विनी कुमारोॅ सथ मरूत्त
जेकरा पैन्हें कभी नै देखल्हौ, एखनी देख्हौ आश्चर्य युक्त॥6॥

जेकरा देखै के इच्छा छौ, हौ मिलथौं यही शरीरोॅ में
है विश्वरूप में गुडाकेश! देख्हौ तों सभ टा थीरोॅ सें॥7॥

लेकिन तोरोॅ आपनोॅ आँखी, हौ रूप नै देखै के हिम्मत
यै लेली दिव्य चक्षु लै केॅ, देख्हौॅ तोहें सम्पूर्ण जगत॥8॥

धृतराष्ट्र सें संजय फिन बोललै, योगेश्वर कृष्णें है कहथैं
हे राजन! पार्थोॅ केॅ देलकै, हौ दिव्य चक्षु बोलथैं-बोलथैं॥9॥

अनगिनती मुँह आरो आँख रहै, अर्जुनें देखलकै अचरज धरि
दिव्याभूषण सें हीं सजलोॅ, दिव्यों आयुध सें लैश हरि॥10॥

दिव्योॅ माला अम्बर से युक्त, दिव्योॅ गन्धोॅ सें सुवासित
सभ टा जग्घा में दिव्य देखि, अर्जुन होय गेलै आश्चर्यजित॥11॥

जैसे सहस्त्रें सूरजें करै, नभ में साथैं-साथैं प्रकाश
तैसें ही वै दिव्यात्मा सें, जगमग चमकै धरती-अकाश॥12॥

तखनी पाण्डव के पुत्रें ने, देखै सभ रूप केॅ एख्है ठियाँ
यद्यपि कि रूप बिभाजित लै, हौ देवादेव के कैॅक ठियाँ॥13॥

रोइयाँ खाढ़ोॅ करि देहोॅ के, अचरज में आबी केॅ हौ सभय
माथोॅ झुकाय प्रणमै मुदां, कर जोड़ि बोललै धनंजय॥14॥

बोललै, तोरा देहोॅ में देव! हम्में देखै छी देव बहुत
सभ टा प्राणी ब्रह्मा शिव केॅ, ऋषिगण के संगें सर्प बहुत॥15॥

तोरा अनन्त रूपोॅ में हस्त, मुख, उदर, नेत्र, छै कत्तेॅ नीं
जेकरोॅ आदि नैं मध्य-अन्त, परमेश्वर देखौं जत्ते नीं॥16॥

सभ मुकुट, गदा आरो चक्रोॅ सें, तोरोॅ ठो तेज छै दीप्तिमान
देखना तोरा अब कठिन लगै, तों दीप्त अनल बेमाप भान॥17॥

तोहीं तेॅ ज्ञान के अक्षर छोॅ, है जगती के आधार तोंहिं
तोहें अव्यय धर्मोॅ-रक्षक, प्राचीन पुरूष भी छोॅ तोंहीं॥18॥

जेकरोॅ नैं आदि, मध्य, अन्त, बाहू अनेक रवि चन्द्र नेत्र
मुख के आगिन सें विश्व तपै, हौ तेजपूर्ण तोरोॅ चरित्र॥19॥

तोरे एख्है सें सब्भे दिशा, नभ, धरा मध्य सब व्यापित छै
हे महात्मना! त्रिलोक उग्रता, अचरज देखथैं त्रासित छै॥20॥

सब देवगणों केॅ जेरोॅ भी, तोर्है में समैलोॅ जाबै छै
कर जोड़ी भजन भयभीत महर्षि, वैदिक कीर्त्तन गाबै छै॥21॥

आदित्य, रूद्र, वसु, मरूत साध्य, सब विश्वदेव अश्विनी कुमार
गन्धर्व, यज्ञ असुरोॅ के दलें, देख्हौं तोरोॅ अचरज अपार॥22॥

हे महाबाहो! तोरोॅ हस्त, पाद, चक्षु, चेहरा, ऊरू, दाँत देखि
देवोॅ संगें लौकिक प्राणी, भयभीत छै अंगोॅ केॅ लेखी॥23॥

तोरोॅ खोललोॅ मुँह दीप्त देखि, नेत्रोॅ विशालता सें भरलोॅ
सब दीप्ति रंगें आकाश छुवै, हे विष्णु! हम्में छी अति डरलोॅ॥24॥

मुंह तोरा दाँतोॅ के निखार, मृत्यु के आगिन सन लागै
हे जगन्निवास! तनि कृपा करोॅ, हमरोॅ तेॅ दिशा शूल जागै॥25॥

सभ्भे राजा दल-बल के साथ, कौरव दल तोरोॅ करने रूख
आपनोॅ दल योद्धा साथ भीष्म, कर्णोॅ द्रोणोॅ तोरे छै मुख॥26॥

परचंड भयंकर मुँह तोरोॅ, जेकरा में भयानक तोरोॅ दाँत
ओकरा में पड़ी के सभ सेना, कुचली-कुचली केॅ मरै साथ॥27॥

जेनां कि नदी सब वेग धरि, जलधारा साथैं सिन्धु मिलै
तेन्है तोरोॅ मुंख वीर पुरूष, पहुंची-पहुंची दाँतें कुचलै॥28॥

जैसे कि पतंगां ज्वलित अग्नि में, वेग धरि मृत्यु के बरै
वैसंे ही मुख में वेग सहित, आवी-आवी सभ लोग मरै॥29॥

हे विष्णु! तोंहें निंगलै छोॅ मुख के अग्नि सें लोगोॅ केॅ
आपनोॅ प्रकाश के तेजपुंज सें, चकचौधै छोॅ लोकोॅ केॅ॥30॥

बस, कृपा करी केॅ कहोॅ देववर! ऊग्र रूप तों के छेका?
आतुर हम्में छी जानै लेॅ, है रूप धरि के की लेखा?॥31॥

भगवानेॅ सुनैलकै लोक विनाशै, हेतु काल के रूप धरी
दोन्हूं दल के योद्धा मारौ, बस तोरे छोड़ी मुख में करी॥32॥

यै लेली उठी केॅ युद्ध कर्हौ, जीतोॅ आरेा राज्य समृद्ध कर्हौ
पैन्है सें है योद्धा मरलोॅ, हे सव्य सांची! बस युद्ध कर्हौ॥33॥

है द्रोण, भीष्म औॅ जयद्रथोॅ, कर्णोॅ के साथें अन्य धीर
सबके सब तेॅ पैन्है मरलोॅ, बस, खाली तोहें लड्हौ बीर॥34॥

संजय बोललै-है बचन सुनी, केशव केरोॅ करि जोड़ि पार्थ!
फिन नमन करी भय रहित बनी, बोललै स्तुति के साथ-साथ॥35॥

अर्जुन बोललै-हे हृषीकेश! संसार मुदित तोरोॅ नाम्हैं सें
पूज्हौं सिद्धे आवद्य बनी, डरि भागै दैत्य तेॅ जान्हैं सें॥36॥

हे परंब्रह्म! हे आदिकाल! देवेश, महात्मा, जगन्निवास
वै दैत्यें कैन्हें नीं पूज्हौ? अक्षर-अनन्त-सत-असत-वास!॥37॥

तों आदिदेव पुराण-पुरूष, है जग के परम निधान तोहीं
ज्ञानी तोंहीं आरो ज्ञान तोंहिं, जग के अनन्त रूप धाम तोहीं॥38।
तोहीं वायु, अग्नि, जल, शशि, ब्रह्मा प्रपितामह भी छोॅ तोंहीं
हम्में नमौ हजारों बार तोरा, हर नमस्कार में भी तोंहीं॥39॥

सम्मुख से नमौं, पीछू सें नमौं, हर ओर सें तोरे नमस्कार
तों अनन्त-वीर्य अमिता-विक्रम, हर प्राणी में, नमौं बार-बार॥40॥

पैन्हें तोरा जें कृष्ण, सखा, यादव के संग अन्य बकलां
अनजान बनी तोरोॅ महिमां, सें पागल औॅ मूरख बनलां॥41॥

कत्तेॅ बेरिय ँ अपमान करी, सूतौं, खाबौं-हँसौं साथे-साथ
कखनूं असकर, कखनूं दोस्ती, सब माँफ कर्हौ हे जगन्नाथ।!॥42॥

चर-अचर लोक के तोंहिं पिता, गुरू पुज्य तोंहिं आरो कीर्तिमान
तोरा बराबरी में नैं कोय, तीनों लोकोॅ में तों महान॥43॥

यै लेलि देहोॅ के झुकता करी, प्रणमौं तोरा हे परम ईश
अपराध ठो हमरोॅ मांफ करौ, पितु-पुत्र-सखा प्रिय देवाधीश॥44॥

अनदेख रूप केॅ देखि हर्ष, पर भय भी मनपर छै सबार
यै लेलि कृपा करी जगन्नाथ! फिन सौम्य रूप धर्हौ एकबार॥45॥

सिर-मुकुट हाथ में गदा चक्र, वही रूपोॅ में देखै इच्छा
हे सहस्त्र वाहो! हे विश्वमूर्त्ति! बस चतुर्भुजो सें देॅ शिक्षा॥46॥

भगवानें कहलकै-हे अर्जुन, है आत्म योग के छै कमाल
जेकरा कभी कोइयो देखै नैं, तोहें देखल्हौ हौ रूप हाल॥47॥

एकरोॅ पैन्हें पुण्यात्मा नै, जे वेद, यज्ञ, तप दान करी
है रूप कभी भी देखनें छै, तोहें जे देखल्हौं नैन भरी॥48॥

है घोर भयंकर रूप देखि, मन तोरोॅ व्यथा सें छौं जे भीत
हौ दूर करै लेॅ भक्त! फेनू, इच्छित छवि देख्हौ शान्त चित्त॥49॥

संजय बोललै-बासुदेव कृष्ण ने, फेनू साबिक रूप धरी
आश्वस्त करलकै अर्जुन केॅ, फिन सौम्य रूप में आय हरि॥50॥

देखी केॅ फिन सें मनुज रूप, अर्जुनें कहलकै जनार्दन!
हमरोॅ चेतन-चित्त स्थिर छेॅ, जखनी पुनरूप भेल्हौ धारण॥51॥

भगवानें कहलकै रूप अभी, जे देखल्हौ बड्डी दुस्कर छै
देवता सिनी भी तरसै छै, हौ रूप के दर्शन दुस्कर छै॥52॥

नै वेद पढ़ी नै तप करने, नै दान्है सें है रूप दिखै
जे तोहें आँखीं सें गमल्हौ, हौ पूज्हौ-पाठी सें नै लखै॥53॥

हे अर्जुन! समझै लेॅ हमरा, निश्काम भक्ति एकमात्र ही तप
बस एक वही भक्ति बल हीं, देखतै-जानतै हे परंतप!॥54॥

जे शुऋ भक्ति कर्मोॅ में
निर्बैर मित्रवत् राखै भव
संग, वर्जित बनी जे पहुंचै छै
वें हीं हमरा पाबै पांडव!॥55॥