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चौदमोॅ अध्याय / गीता / कणीक

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चौदमोॅ अध्याय

(यै अध्याय केॅ गुण-त्रय विभाग योग के नाम सें जानलोॅ जाय छै। सांसारिक बन्धन से मुक्त होय लेली प्रकृति के त्रिगुण-सत्व, रज, आरो तम से विलग होना आवश्यक छै। अनन्य भक्ति द्वारा ही यै त्रिगुणोॅ के फेरा से कोय मुक्त हुवेॅ पारेॅ। प्रकृति के तीन्हूं गुणोॅ के परिचय अलगे-अलगे ढंगॉे से दै केॅ ओकरा से निवृति के ऊपाय यै अध्याय में बतैलोॅ गेलोॅ छै। ब्रह्म-ज्योति में मिलै लेली निर्विघ्न रूप सें त्रिगुणोॅ के फेरा से बची केॅ भक्ति में लीन होला सें ही कल्याण छै।)

भगवानें कहलकै एक बेरी फिन
बोलै छी हौ परम ज्ञान
जेकरा जानी सब सिद्ध मुनी
पहुंचै छै हमरोॅ परम धाम॥1॥

हौ ज्ञानोॅ में खुद लीन रही, जे तारतम्य में लय रहतै
श्रृष्टि-विनास से परे रही, हमरे धारोॅ में बहतै॥2॥

हे भरत पुत्र! योनि आरनीं, गर्भोॅ के कारण ब्रह्म छेकै
जेकरा सें संभव प्राणी सभैं, के श्रृष्टि ही आधार छेकै॥3॥

हे कुन्ती पुत्र! भौतिक प्रकृति, योनि सबके हर मूरत में
बनी बीज प्रदत्त पिता हम्हीं, आत्मा के रोपौं सूरत में॥4॥

छै सत्व के साथें रज, तम गुण, जेकरा से प्रकृति के काम चलै
प्राणी जे गुण के धरम धरै, हौ वही गुणों में जाय मिलै॥5॥

हे आनध! सत्व के निर्मल ज्योति, ही पुण्य काल के उदय करै
यै गुण के साथैं ज्ञान बसै, पर सुख तेॅ शर्त्त में बन्धलोॅ रहै॥6॥

हे कुन्तीपुत्रॅ! रज रागोत्त्पति, तृष्णा के संग ही नित बिचरै
है फलप्रद इच्छा लै ऊपजै, उत्तेजन आकर्षण में ही फिरै॥7॥

हे भरत पुत्र! सब देहोॅ में, तम गुणे मोह संचार करै
उमताहट, निद्रा, आलस संगें, वें आत्मां पेॅ राज करै॥8॥

सुख संचय कर्त्ता सत्वे छै, फल चाखै लेली रज गुण ही
अज्ञान प्रमाद के झोली लै, आलस में डुबावै तम गुण हीं॥9॥

हे भरत पुत्र! अज्ञान मोह में, तम गुण ही जल्दी ठेलै
तीनों ठो गुणोॅ केॅ झगड़ै में, विजयी कखनूं कोइयो ठो भेलै॥10॥

सत्वोॅ के लक्षण देह द्वार केॅ, ज्ञान ज्योति सें चमक करै
ज्ञानोॅ के साथें विद्या दै केॅ, पुण्य पथोॅ पर लैकेॅ बढ़ै॥11॥

लेकिन रज गुण धरथैं भारत! लोभें, प्रवृतिं कर्मे इच्छा
सभ्भै आबी नर केॅ घेरै, भूलै सब सद्गुण के शिक्षा॥12॥

हे कुरूनन्दन! जबेॅ अन्धकार, निश्क्रिय प्रमाद औॅ मोह बढ़ै
अेकरा तम आवृत ही बुझहौ है नर के सिर पर बैठि चढ़ै॥13॥

जे मनुज सत्व हित कर्म करी, है लोक त्यागि केॅ जाबै छै
वें पुण्य लोक में पहुंची केॅ, उत्तम ऋषि पद केॅ पाबै छै॥14॥

जें रज गुण धारी देह त्यागि, कामना के हित जन्मोॅ में फँसे
हौ पुनः मृत्यु पर पुनर्जन्म लै, मूढ़ योनि में आवि धँसै॥15॥

सात्विक मानव सत्कर्म करै, हौ निर्मल फल अधिकारी छै
राजस केॅ रज सें दुःखे छै, तामस अज्ञानी भारी छै॥16॥

ज्ञानोॅ कुण्डोॅ में सत्व बसै, रज पलें लोभ के कुण्डोॅ में
उमताहट, मोह में तम ही बसै, आलस अज्ञान के झुण्डोॅ में॥17॥

ऊपर स्वर्गोॅ के रूख में सत्व, छै धरा लोक में रज के वास
लेकिन जघन्य गुण लै तम ही, नीचें भागै जहाँ नरक वास॥18॥

यै त्रिगुण प्रभावोॅ सें नैं अछूतोॅ, कोइयो जग के प्राणी छै
है हमरा मत के असल भाव, जौनें जानतै हौ ज्ञानी छै॥19॥

जबेॅ देह जीव है त्रिगुण फेर सें, छिटकि भक्ति के रूख करतै
तेॅ जरा-ब्याधि, दुःख-सुख जीवन-मरणोॅ बन्धन सें नै डरतै॥20॥

अर्जुने पुछलकै-केनां केॅ? है त्रिगुण चाल लोगें बुझतै
आचार प्रभू! छै की एकरोॅ? प्रकृति गुण सें कैसें लिपटै॥21॥

भगवाने बुझैलकै हे पाण्डव! जे घृणै मोह आवद्य ज्योति
जेकरोॅ इच्छा एकरा से विलग, बस परे प्रवृति साथें निवृति॥22॥

जें उदासीन रही गुण परखै, आरो वै प्रकृति के गणण करै
गुण के अध्ययण में सतत रही, स्थिति-विनाश के मणण करै॥23॥

सुख-दुःख केॅ साम्य भाव तैलै, सोनोॅ पत्थल सभ एक्के बुझै
निन्दा-स्तुति केॅ भेद रहित, प्रिय अप्रिय दोनों एक सुझै॥24॥

अपमान-मान केॅ तुल्य बुझै, मित्रोॅ शत्रु में भेद नहीं
सर्वारम्भ त्यागी गुणातीत, कलावै में भी खेद नहीं॥25॥

निर्विघ्न भाव सें भक्ति करी, जौनें परमोॅ के सेवै छै
हौ तुरत त्रिगुण फेरा से बची, सीधे ब्रह्मोॅ में जावै छै॥26॥

हम्हीं तेॅ ब्रह्म-आधार छिकां
सच्चिदा नन्द, सास्वत अनूप
अमर्त्य, अव्ययी प्रतिस्थापित
सगरोॅ हमरे छै ब्रह्म-ज्योति॥27॥