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प्रस्तावना / काँधों लदे तुमुल कोलाहल / कैलाशचन्द्र पन्त

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2016 और 2017 के बीच लिखे गये 52 नवगीतों का यह संग्रह श्री यतीन्द्रनाथ ‘राही’ ने उम्र के नौ दशक पूरे करने के बाद प्रकाशित किया है। इस संयोग से संग्रह के शीर्शक पर ध्यान जाता है- ‘‘काँधों लदे तुमुल कोलाहल’’। आयु के इस शिखर पर बैठा कवि कन्धों पर लदे तुमुल कोलाहलों से भी हारा नहीं है प्रत्युत दे रहा है दृढ़आशावादी संदेश-
सौ-सो नखत
गगन के आँगन
भर न सके उजियारा
नन्हे खद्योतों ने बाहर
हाँक दिया अँधियारा
चलो!
चाँदनी से निचोड़ लें
हम अमृत की बूँदे
धरती के सपने सरसित हों
जब हम आँखें मूँदें
आखर अमर
प्रीति के पनघट
ज्योति कलश छलकाएँ।

‘सांध्य गीत’ की इन पंक्तियों से एक बार पुनः ध्यान उस विवाद की ओर आकर्षित हो जाता है जिसमें गीत को समकालीन आलोचकों ने हाशिए पर डालने की कोशिश की थी। इस कोशिश को उन गीतकारों ने भी बल दिया जो परम्परागत छन्द की कसौटी पर नवगीत की आलोचना करते रहे हैं। श्री यतीन्द्रनाथ ‘राही’ ने अपनी रचनात्मकता से उन आरोपों का सकारात्मक उत्तर दिया है।

गीत की आलोचना में अक्सर कहा जाता रहा कि श्रृंगार की बहुलता समाज की पीड़ा से एकाकार नहीं होने देती। इसलिये गीत समाज के यथार्थ को अभिव्यक्त नहीं करते। इसी के साथ उसमें शब्द, शिल्प और बिम्ब की नव्यता न होने की बात कही जाती रही। वस्तुतः गीत अन्तस का संगीत है और प्रकृति से प्रेरणा लेकर ही उसका जन्म हुआ है। इसका अर्थ है कि प्रकृति में चेतन ध्वनियों से ही मनुष्य ने गीत रूपी प्रति-सृष्टि की। स्वाभाविक है कि इस अनुभूति के लिये रागात्मकता का तत्व विद्यमान हो। लेकिन यह भी सच है कि भौतिक अवधारणाएं मानव-मन की संवेदना को सोख लेती हैं। इसकी स्वाभाविक परिणति क्या होती है इसका चित्र राही जी प्रस्तुत करते हैं-
द्वार भटके मन्दिरों के
देवता मिलते कहाँ
आदमी के दरस भी तो
अब हुए दुर्लभ यहाँ
खो गए गोकुल भटकते
मॉल में बाज़ार में
खेत डूबे
शहर के बढ़ते हुए आकार में
नाम जपते उमर बीती
झर गई हर पाँखुरी।
यह आज के सामाजिक यथार्थ की वस्तुनिष्ठ अभिव्यंजना ही तो है। संवेदनशून्य जीवन कितना निर्मम और स्वार्थी समाज निर्मित कर देता है इसकी पीड़ा कवि किस गहनता से व्यक्त कर रहा है-
झूठ-सच अच्छे-बुरे का
कौन जाने भेद कैसा
आदमी के आकलन की
है कसौटी सिर्फ पैसा
दौड़ है अन्धी, न जाने
और कितना दौड़ना है
क्या वरण करना पड़ेगा
और क्या क्या छोड़ना है
बंचकों की हाट हैं
प्रतिदान की
बातें करो मत!

क्या इन पंक्तियों को अपने समय और समाज से अलग कर समझा जा सकता है। शब्द, शिल्प और कथ्य तीनों में प्रयुक्त नव्यता देखकर समझा जा सकता है कि गीत में सशक्त अभिव्यक्ति संभव है।
भौतिक जीवन शैली पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करने वाले बहुत से गीतकार हिन्दी में लिखते रहे हैं। जयशंकर प्रसाद ने ‘कामायनी’ में लिखा था-
अपने में सब कुछ भर कैसे
व्यक्ति विकास करेगा
यह एकांत स्वार्थ भीशण है
अपना नाश करेगा

इस सत्य का सामना करने से अक्सर बचा जाता है कि मनुष्य जीवन की सारी बिडम्बना उसकी जीवन-दृष्टि से उपजती है। यह भी भुला दिया जाता है कि मनुष्य कुछ प्राकृत वृत्तियों से संचालित होता है। इन्हें परिष्कृत कर, प्रांजल बनाकर ही एक अच्छे मनुष्य का निर्माण संभव है। आज मनुष्यता का दायरा कितना संकुचित हो चुका है। जब व्यक्ति का निर्माण नहीं होगा तो एक स्वस्थ समाज के निर्माण की कल्पना स्वप्न ही रहेगी। यथार्थ की बात करने वाले जीवन के इस सबसे बड़े सच से क्यों आँखें चुरा लेते हैं?

यतीन्द्रनाथ राही के गीतों में स्वप्न ही नहीं पलते वे यथार्थ का धरातल भी तलाशते हैं। ऐसा करते समय कवि की रागात्मिका वृत्ति जीवन्त रहती है। इसी कारण उनके इन नवगीतों में गीत के समर्थक और विरोधी-दोनों ही-विशिष्टता लक्षित करेंगे। ‘स्वर्ण होते रहे गल कर’ शीर्शक गीत की इन पंक्तियों का उल्लेख आवश्यक है-
हाथ जोड़े
आशिशें यो माँगते/बैठे रहो मत
सामने कुरुक्षेत्र है
यों मोह में उलझे रहो मत
मंज़िले खुद चूमलेती
पाँव जो चलते हुए हैं।
हौसलों ने ही सदा
ऊँचे शिखर बढ़कर छुए हैं
शक्तियाँ सारी
झुकाकर शीश मंगलघट धरेंगी
चेतना के सुप्त हिमनद
चल पड़ेंगे जब पिघलकर।

गीतकार का यह आव्हान व्यक्तिवादी नहीं है। यह पलायनवादी भी नहीं। समग्र मानव जाति के उत्कर्श का सन्देश है। इस आव्हान में गीत के व्यापक फलक को देखा जा सकता है, जो गीत पर लगाये जाने वाले आरोपों को खारिज करता है।
इतना ही नहीं जीवन में छाते जा रहे पाखण्ड और छद्मपूर्ण आचरण, जो आधुनिक सभ्यता का पर्यायवाची बन गया है उसे भी कवि यतीन्द्रनाथ राही अपने गीत में जिस व्यंग्यात्मक शैली में उकेरते हैं इसके लिये साधारण नहीं, विशेश प्रतिभा की आवश्यकता होती है। यह प्रतिभा ही राही जी को विशिष्टता प्रदान करती है। वे गीतकारों की पंक्ति में कुछ अलग खड़े दिखाई देंगे। यह रजधानी गीत में लिखते हैं-
कैसा राज-पाट यह वैभव
जलता प्यार
सुलगते रिश्ते
संस्कारों की उड़ी धूल में
निष्ठाओं के अंग सिमटते
ठगनी महा मधुपुरी ऊधौ!
प्राण हमारे
मधुवन-मधुवन
साँस-साँस में घुली बाँसुरी
रोम-रोम में
पुलकन-पुलकन
कहाँ हमारे पावन गोकुल
और कहाँ है
यह रजधानी?

गीत हो या नवगीत उसका मूल्यांकन कवि की दृष्टि की व्यापकता, अनुभव की सूक्ष्मता और सृजनात्मक मौलिकता से किया जाना चाहिये। अनुभव के साथ अध्ययन और शब्द चयन में वैशिष्ट्य ही गीत को लोकप्रिय बनाते हैं। राही जी के गीत इन कसौटियों पर उन्हें गीतकारों में विशिष्टता प्रदान करते हैं। इस संग्रह के नवगीतों को पाठक न केवल पढ़ेगा बल्कि उनमें जीवन के ऐसे सन्देशों की अनुगूँज भी सुनेगा जो मानवीयता के विराट फलक का आभास कराती है। नैराश्य की जड़ता से मुक्त होकर यह समझाने में पाठक समर्थ होगा कि मानव सभ्यता को इस मुकाम तक पहुँचाने का श्रेय मनुष्य के पुरुषार्थ को ही है। इसे ही कहते हैं ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ संग्रह का शीर्शक भी सटीक है जो संघर्षों से जूझती मानव जाति को विश्वास का संबल प्रदान करता है।

निश्चित ही हिन्दी जगत यतीन्द्रनाथ राही के नवगीतों के माध्यम से गीत और नवगीत को समझने की अपनी दृष्टि बदलेगा।
मैं श्री राही की रचनाशीलता के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए उन्हें हृदय से बधाई देता हूँ।

कैलाशचन्द्र पन्त
मंत्री संचालक
म.प्र. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति