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भोगा और जिया / यतींद्रनाथ राही

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सारी उम्र
गीत ही मैंने
भोगा और जिया है।

अब तक जो गाया लिखा-कहा
सब सत्य सनातन है
अगर कहो जीवन का दर्पण
तो वह अधुनातन है।
नहीं रच सका अखबारों की
सीधी सपाट बयानी
जहाँ ज़रूरत हुई
मोड़ भी ली है सहज रवानी
सरस प्रवाह कभी धारा का
बाधित नहीं किया है।

तथाकथित पाण्डित्य कहीं भी
भरमा नहीं सका है
किसी ध्वजा की छत्र-छाँव में
रथ यह नहीं रुका है
सहज निसर्ग-रूप का पूजक
हुआ न कभी दिगम्बर
रचे आवरण सुरुचि सुपावन
धरे न शब्दाडम्बर
कितनी बार उपेक्षाओं का
कड़वा ज़हर पिया है।

कहो गीत
नव गीत कहो या
जो चाहे तुम कहलो
गहराई में उतर कभी तो
पल दो पल तुम बहलो
अन्तस्तल की तोड़ शिलाएँ
बहे, मुक्त निर्झर हैं
ये शब्दों से परे
मौन के
मुखरित पावन स्वर हैं
मैंने इन्हें सहेज
सृजन का सुख
अविराम लिया है।