भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घिरी घटाएँ / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:14, 12 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=यतींद्रनाथ राही |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घिरी घटाएँ घोर
कर रहा
अब मौसम मनमानी

दुर्लभ दालें
नोन-तेल का
भाव न पूछो भैया
लदा षीश पर कर्ज़
बिक गयी
बची अकेली गैया
आटा गीला कंगाली में
बिना दाल के हँडिया
क्या ओढ़ें
क्या करें बिछावन
बिना गोदड़ी खटिया
छान पुरानीं
टूटा छप्पर
टपक रहा है पानी।
दद्दा गए विलायत
काला धन भर कर लाने को
आज नहीं तो कल व्याकुल हैं
अच्छे दिन आने को
जेब भरी, होगा अपना घर
हम सब स्मार्ट बनेंगे
झोपड़ियों की जगह
देखना
अपने महल तनेंगे
आषा पर आकाश टिका है
आषा से
ज़िंदगानी।

और भीग लो सावन-भादों
परिवर्तन होना है
नयी फसल में नयी क्रान्ति के
बीज तुम्हें बोना है
ध्वज फहरे है आसमान में
कल धरती नाचेगी
यश-गाथाएँ कभी हमारी
यह दुनिया बाँचेगी
धीरज मोटी बात
धरम की
अपनी लीक पुरानी!