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घिरी घटाएँ / यतींद्रनाथ राही
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घिरी घटाएँ घोर
कर रहा
अब मौसम मनमानी
दुर्लभ दालें
नोन-तेल का
भाव न पूछो भैया
लदा षीश पर कर्ज़
बिक गयी
बची अकेली गैया
आटा गीला कंगाली में
बिना दाल के हँडिया
क्या ओढ़ें
क्या करें बिछावन
बिना गोदड़ी खटिया
छान पुरानीं
टूटा छप्पर
टपक रहा है पानी।
दद्दा गए विलायत
काला धन भर कर लाने को
आज नहीं तो कल व्याकुल हैं
अच्छे दिन आने को
जेब भरी, होगा अपना घर
हम सब स्मार्ट बनेंगे
झोपड़ियों की जगह
देखना
अपने महल तनेंगे
आषा पर आकाश टिका है
आषा से
ज़िंदगानी।
और भीग लो सावन-भादों
परिवर्तन होना है
नयी फसल में नयी क्रान्ति के
बीज तुम्हें बोना है
ध्वज फहरे है आसमान में
कल धरती नाचेगी
यश-गाथाएँ कभी हमारी
यह दुनिया बाँचेगी
धीरज मोटी बात
धरम की
अपनी लीक पुरानी!