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कबीरे / यतींद्रनाथ राही

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सारी उमर
सोचते बीती
ऐसे गीत
कभी हम गाते।

रहे ठोकते बहुत मजीरे
धर्म-अधर्म-काम के कामी
भीतर से
बदशक्ल बहुत हैं
मज़हब के उदभट ये नामी
व्यर्थ अज़ान
प्रार्थना-तीरथ
देव नहीं
आदम बन पाते
होता जो लबरेज़ प्यार से
ऐसा सहज सरल तन पाते
धर्म-कर्म के भरम खोजते
दिषाहीन
राहें पा जाते।

टूटा सा
इकतारा लेकर
कल जो एक फकीरा आया
चट्टानें हो उठी अंकुरित
जाने क्या ऐसा कुछ गाया
शब्द-शब्द
कानों में आकर
जलतरंग जैसे बजते थे
स्वर से
लय में उतर
प्राण में
अमृत-रस जैसे
घुलते थे
काश!
किसी अनहद के स्वर में
पल भर एक
विलय हो पाते!