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मुजरा देख रहे हैं / यतींद्रनाथ राही

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कंठ सूखा है धरा का
एक सावन चाहिए

शयनकक्षों में तुम्हारे
हैं अँधेरे
क्या हुआ?
आँख, खिड़की की लगी है
कान हैं दीवार के
आइने तुमको नहीं स्वीकार
मत देखों इन्हें
जानते हालात हम
इस पार से उस पार के
टोपियाँ कोई पहन लो
नाम
कोई ओढ़ लो
सिर्फ हमको आदमी का
पाक दामन चाहिये।

इन जुबानों की
लगामें
थाम लो तो ठीक है
लोग कहने लग गए हैं
आदमी बदज़ात है
फेक दोगे तुम किसे?
इन मछलियों को
ताल को ?
कीच में ही यदि खिलाओ तुम कमल
तो बात है।
कर्म इसके और उसके
कौन परखेगा यहां
न्याय अन्धा
सत्य का चेहरा
सनातन चाहिये।

आदतें ही कुछ बुरी हैं
बाँसुरी सुनते रहे
ज़िन्दगी भर प्यार के ही
गीत गाए हैं
दायरों में बँध कभी
जीना नहीं सीखा
हौंसलों ने पर्वतों के
सिर झुकाए हैं
खींच कर हम गगन भी
धर दें तुम्हारी गोद में
गाँव का घर
नेह-लीपा
एक आँगन चाहिये!