भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुजरा देख रहे हैं / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:38, 12 अक्टूबर 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूरदास जी
बैठ झरोखे
मुजरा देख रहे हैं

किसकी खाट खड़ी चौराहे
बरसे किस पर डन्डे
मन्दिर में भगवान सो रहे
भोगा लिप्त हैं पन्डे
कौन ले गया भर जेबों में
सड़कें-ताल-पोखरे
नंगे नाच रहे हैं किसके
ये बिगड़ैल छोकरे
काले मुँह
बिक गए थोक में
 खुदरा देख रहे हैं
दंश धर रहे हैं छाती पर
पाले थे जो विषधर
रोज़ नयी दीवार खड़ी है
गाज गिरी है घर पर
कहीं धुआँ है
कहीं आग है
विश में बुझी हवाएँ
आगे-पीछे हर नुक्कड़ पर
धमकाती शंकाएँ
पावन संस्कृतियों का बखिया
उधड़ा देख रहे हैं।

उधर पड़ोसी की गुर्राहट
इधर शांति-पारायण
खुली हवा के लिये
तरसते हैं
घुटते वातायन
दुष्ट-दलन कर मानवता के
रक्शण की मर्यादा
धरी अधर पर कभी बाँसुरी
कभी चक्र भी साधा
शान्त सिन्धु में
आज ज्वार फिर
उभरा देख रहे हैं।