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करो कुछ रोशनी भाई / यतींद्रनाथ राही
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उठो!
देखो!!
अँधेरा है
करो कुछ रोशनी भाई!
अँधेरे घर
किवाड़े बन्द
गहरी नीद में सोए
न जाने किन खयालों में
अभी तक तुम रहे खोए
खिड़कियाँ खोल दो
देखो
गली में षोर कैसा है
मुझे लगता नहीं
सब कुछ कि जैसे
ठीक जैसा है
इधर उस मोड़ पर हुल्लड़
उधर से
चीख सी आई
बजें बरतन अगर घर में
तो चिन्ता की नहीं जाती
मगर भाँड़े सड़क पर फूटते हैं
दरकती छाती
हमारे खून के रिष्ते
परस्पर प्यार अपना पन
सरसता संस्कारों की
बुज़ुर्गों का कमाया धन
हुआ करते थे पानीदार
कैसी
बुज़दिली छाई।
न हो मैली
हमारी आबरू की
यह धुली चादर
उठें जब एक लय में हों
हमारी चेतना के स्वर
किसी अन्धी जुगुप्सा में
किसी उन्माद में बहकर
न लुटने दें सदाक़त को
सियासत के बिछावन पर
बचाओ मानसर
ढकने
पसरती
आ रही काई।
करो कुछ...।