भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक पल तो / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:41, 12 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=यतींद्रनाथ राही |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम बँधे
ज्यों गगन बाँधा
हो गयी हैं धन्य बाँहें

यह तुम्हारा प्यार
यह अपनत्व
ये श्रद्धा-सुमन
यज्ञ-मन्त्रित धूम-गान्धित
एक पावन आचमन
चाह थी
बस एक अँजुरी
भर दिये रस के कलश
मिल गया जैसे
किसी अज्ञात का
पावन परस
हैं विमुग्धित प्राण
तन-मन
षेश क्या
जो और चाहें।

हरित वन-प्रान्तर तुम्हारे
ये नदी-निर्झर-निकर
किस अनागत का
सरस संकेत धरते से
षिखर
झील से ले सिन्धु तक
फैली अतल गहराइयाँ
मैं जहाँ था
साथ मेरे
थीं यही परछाइयाँ
ग्राम निर्मल धूल चन्दन
ज्योति से आदीप्त राहें।

गीत जो गाए
अभी तक
सब तुम्हारे ही लिये थे
शब्द की इन मुट्ठियों को
अर्थ तो तुमने दिये थे
पंगु थीं सम्वेदनाएँ
मूक थीं अभिव्यक्तियाँ
तुम मिले तो हो गयीं
समृद्ध
सारी रिक्तियाँ
प्यार से उपलब्ध निधि
कैसे कहें
कैसे सराहें?
हो गयी हैं
धन्य बाँहें।